अयोध्या का फैसला, न्याय की थोड़ी-बहुत उम्मीद रखने वाले पूरे समाज के साथ किया गया धोखा है। हालाँकि इसमें कोई नई बात नहीं है। हमारे देश की हजारों अदालतों में लाखों लोग रोज अन्याय के शिकार होते हैं। बहुत से तो अपने साथ हुए अन्याय का कारण ही नहीं जानते। अपनी गरीबी, साधनहीनता, दुत्कार, घिसटते हुए जीवन और इलाज के अभाव से लेकर किसी भी वजह या बेवजह होने वाली मौत तक को वे विधाता का खेल और अपना दुर्भाग्य मानकर रो-धोकर वापस जिन्दगी में खप जाते हैं- अपनी बारी का इंतजार करते हुए। वे विश्व बैंक या अमेरिका या अपने वित्त मंत्री, स्वास्थ्य मंत्री के खिलाफ कभी अदालत नहीं जाते। ये तो बड़े ओहदेदार हुए, दरअसल तो वे कभी अपने सरपंच, पटवारी, दारोगा या क्लर्क के खिलाफ भी नहीं जाते।
जो थोड़े से अदालत की सीढ़ी चढ़ पाते हैं, वे थोड़े भी लाखों या करोड़ों में होते हैं, उनमें भी अधिकतर को न्याय नहीं मिलता। पहले चप्पलें घिसती हैं, फिर जिन्दगी ही घिस जाती है। जिन थोड़े से लोगों को अदालत से फैसला मिलता भी है, उनमें भी न्याय सबको मिलता हो, ऐसा सोचने की कोई ठोस वजह हमारे आजाद देश की पवित्र कही जाने वाली न्याय प्रणाली ने हमें नहीं दी है।
न्याय व्यवस्था की दुरवस्था पर खुद बहुत से ईमानदार न्यायविद् लिख-कह चुके हैं और जिनका साबका जिंदगी में कभी भी कोर्ट-कचहरी से पड़ा है, उनमें से अधिकांश फिर वहाँ नहीं जाना चाहते। इस सबके बावजूद हमारे देश के सभी जातियों, सभी धर्मों और सभी वर्गों के लोग आश्चर्यजनक संयम के साथ आजादी के बाद से अब तक मोटे तौर पर न्यायालय का सम्मान करते आए हैं- दाग़ी वकीलों की लूट-खसोट और न्यायाधीशों के बारे में जब-तब उछलते रहे भ्रष्टाचारों के बावजूद।
तो फिर अयोध्या के फैसले में ऐसा क्या है जिससे कि हमारे सहनशील नागरिकों की न्यायालय के प्रति आस्था को धक्का लगे? क्यों नहीं यह भी न्याय के नाम पर न्याय को लगातार स्थगित करती रहती, या फिर अन्याय का ही पक्ष ले लेती भारतीय न्याय व्यवस्था का एक और सामान्य कारनामा मान लिया जाए?
अयोध्या का फैसला या वृहद् जन समुदाय के मन-मस्तिष्क के साथ जुड़े हुए अन्य मामले इसलिए अलग हैं क्योंकि ये एक सार्वजनिक मान्यता का निर्माण करते हैं। व्यक्तिगत स्तर पर न्याय व्यवस्था की खामियों का शिकार होने के बावजूद लोग न्याय की उम्मीद इसलिए रखे रहते हैं क्योंकि बहुतों का होने के बावजूद न्याय के नाम पर अन्याय हासिल होने का उनका तजुर्बा उनका व्यक्तिगत तजुर्बा ही बना रहता है, वह सार्वजनिक नहीं हो पाता। जबकि अयोध्या जैसे मामले, जिनकी तरफ सारे देश की निगाहें लगी होती हैं, वे एक नज़ीर कायम करते हैं, वे जीवन के मूल्य तय करते हैं।
अयोध्या के फैसले में वह ताकत थी कि वह देश में मज़हब के नाम पर होने वाली राजनीति को करारा तमाचा मारता और एक नज़ीर कायम करता। भले बाद में मस्जिद बनती या मंदिर रहता या मामला सुप्रीम कोर्ट में लटका रहता, लेकिन बाद की पीढ़ियों तक के लिए एक जीवन मूल्य बनता कि न्याय ने सत्ता की खरीदी बाँदी होने से इन्कार कर दिया।
बहरहाल, जैसे कवि चन्द्रकान्त देवताले ने वैज्ञानिक अब्दुल कलाम को लिखी अपनी कविता में लिखा था कि उन्होंने भाजपा द्वारा परोसा गया राष्ट्रपति पद स्वीकार करके साम्प्रदायिक शक्तियों को लज्जित करने का दुर्लभ मौका गवाँ दिया, वैसे ही इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने भी यह दुर्लभ मौका गवाँ दिया, जो लाखों-करोड़ों में से किसी एक को जिन्दगी में सिर्फ एक बार बमुश्किल मिलता है।
देश के करोड़ों बगैर पढ़े-लिखे और पढ़े-लिखे लोग यही समझेंगे कि जरूर रामलला का जन्म वहीं हुआ होगा, जहाँ बाबर ने मंदिर ढहाकर मस्जिद बनाई तभी तो अदालत ने ऐसा फैसला दिया। उनमें वे भी होंगे जो बखूबी जानते हैं कि अदालतों के दिए फैसलों के आधार पर सच और झूठ की पहचान बहुत मुश्किल हो चुकी है। फिर भी वे इस फैसले को सच का फैसला मानेंगे क्योंकि एक तो इत्तफाकन वे धर्म से हिन्दू होंगे और दूसरे, वे लगातार दो दशकों से फैलाए जा रहे साम्प्रदायिक ज़हर के जाने-अनजाने शिकार बन चुके होंगे। तजुर्बों से सीखे लोग नई पीढ़ी को ये नसीहत देना बंद कर देंगे कि ‘‘सच्चाई की आखिरकार जीत होती है।’’
राजनैतिक हित में विज्ञान की चाकरी
एक जमाने में कवि, शायर, ऋषि-महर्षि और मनीषी राजा की पसंद-नापसंद का ख़याल न करते हुए वही कहते थे जो उन्हें सही लगता था। खरा सच कहने से जिनकी जान पर ही बन आई, वे तो थे ही, लेकिन इतिहास में ऐसे नाम भी कम नहीं जिन्होंने भले घुमा-फिराकर, इशारों में सच कहा हो लेकिन राजा की मर्जी की वजह से झूठ तो नहीं कहा। अब बाजार के दौर में अनेक इतिहासकारों, साहित्यकारों और वैज्ञानिकों ने अपने पाले बदल लिए। इस फेहरिस्त में अब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग भी जुड़ गया। खुदाई के दौरान प्राप्त हुईं जानवरों की हड्डियाँ, मुस्लिम शासकों के काल में इमारत निर्माण में इस्तेमाल होने वाली सुर्खी और चूने के मसाले की मौजूदगी आदि अनेक तथ्य जो वहाँ कभी भी, किसी भी तरह के मंदिर की मौजूदगी के विरोधी सबूत थे, पुरातत्व विभाग की रिपोर्ट में उपेक्षित कर दिए गए। पुरातत्व विभाग तो इस हद तक ही गया था कि एक निराधार ‘स्तंभ आधार वाली संरचना’ को उसने मंदिर होने की संभावना के रूप में पेश किया और ऐसे सारे सबूतों की ओर से आँखें मूँद लीं जो वहाँ मुगल कालीन निर्माण की ओर संकेत करते थे। लेकिन न्यायालय ने तो उससे कहीं आगे जाकर न केवल यह फैसला दे डाला कि वहाँ मंदिर था, बल्कि यह भी कि रामलला का जन्म भी वहीं हुआ था। राम के मिथकीय चरित्र को न्यायालय ने इतनी विश्वसनीयता व सहजता से स्वीकार कर लिया मानो उन्हें प्रसव कराने वाली दाई का शपथपत्र ही हासिल हो गया हो।
मैं इस लेख में उन ब्यौरों को नहीं दोहराऊँगा जो इसी अंक में अन्यत्र विस्तार से दिए जा रहे हैं। डी0 मंडल, सूरजभान और सीताराम राॅय जैसे ख्यातिप्राप्त पुरातत्ववेत्ता और रामशरण शर्मा, इरफान हबीब, के0एन0 पणिक्कर, के0एम0 श्रीमाली आदि अनेक इतिहासकारों ने अदालत में पेश की गई भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की अयोध्या खुदाई की उस रिपोर्ट की इरादतन शरारतों और तथ्यों से खिलवाड़ करने का खुलासा किया है जिसकी बिना पर अदालत ने अयोध्या के विवादित स्थल को राम की जन्मभूमि घोषित कर दिया। यहाँ मैं पुरातत्व विज्ञान की उन बारीकियों या फिर कानून की उन उलझी हुई धाराओं में भी नहीं जाऊँगा जिनका परदा बनाकर इस फैसले को सही ठहराने की कोशिश की गई है।
हाँ, पुरातत्व-विज्ञान और कानून की तरफ मेरे कुछ आम समझदारी के सवाल जरूर हैं जो मेरे ख़याल से इस मुद्दे के केन्द्र में रखे जाने चाहिए। सवाल यह है कि अगर कल कोई यह दावा करता है कि विवादित स्थल की जिस गहराई तक खुदाई हुई है, उससे और चंद फीट नीचे जैन मंदिर या बौद्ध स्तूप था तो क्या अदालत फिर से खुदाई करवाएगी? और चूँकि मौजूदा खुदाई में भी यह तथ्य तो सामने आया ही है कि अयोध्या के विवादित ढाँचे की कुछ विशेषताएँ सारनाथ के स्तूप से समानताएँ दर्शाती हैं और कुछ असमानताएँ, तो क्या कल हम फिर बौद्धों और हिन्दुओं में संघर्ष की जमीन तैयार होती नहीं देख रहे हैं? और फिर उस जमीन के नीचे से और कितने रक्तरंजित सामुदायिक संघर्षों के बीज निकलेंगे, इसकी कल्पना भी भयानक है।
आशय यह नहीं है कि हम इतिहास पर खाक डालें और अपने वर्तमान को मानवता और सौहार्द्रता से परिपूर्ण कर लें। इतिहास की ओर से आँखें मूँदकर कोई समाज न आगे बढ़ पाया है और न अपने आज का सामना कर पाया है। लेकिन इतिहास की तरफ किस नजरिये से, किस उद्देश्य से देखा जाए, इसकी समझदारी तो हमें बनानी होगी। हम पुराने वक्त को समझकर वहाँ से विवादों और नफरतों का वर्तमान में आयात करना चाहते हैं, या क्या हम वापस पुराने दौर में लौटकर अपनी पराजयों का फैसला पलटना चाहते हैं? या फिर हम अपने समाज के अतीत को विकास प्रक्रिया समझने का एक औजार बनाकर अतीत की वैमनस्यताओं और गलतियों से मुक्त कर इस धरती को जीने के लिए एक बेहतर जगह बनाना चाहते हैं?
जाहिर है कि अयोध्या के विवाद को उभारने के पीछे सदाशयताएँ या इतिहास के विवेचन की विशुद्ध वैज्ञानिक उत्सुक दृष्टि नहीं बल्कि संकीर्ण राजनीति का मुनाफाखोर नजरिया काम कर रहा है। अयोध्या पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले ने एक ऐसी जमीन तैयार करने में मदद की है जिस पर सिर्फ खून की सिंचाई होगी और नफरत की फसल उगेगी।
इसी तरह कानून का भी संक्षिप्त जायजा लें तो पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस राजेन्दर सच्चर की कुछ बातों का इस सिलसिले में उल्लेख जरुरी और अहम है। सच्चर साहब के मुताबिक लाहौर की मस्जिद शहीदगंज के मामले में 1940 में हुआ यूँ था कि वहाँ सन् 1722 तक एक मस्जिद थी। बाद में वहाँ सिखों की हुकूमत कायम हो जाने के बाद उस जगह का इस्तेमाल 1762 आते-आते गुरुद्वारे के तौर पर होने लगा। सन् 1935 में उस इमारत पर एक मुकदमा कायम हुआ कि उस जगह पर चूँकि एक मस्जिद थी इसलिए उसे मुस्लिमों को लौटा दिया जाए। मामले पर फैसला देते हुए सन् 1940 में प्रीवी कौंसिल ने कहा कि लोगों की धार्मिक भावनाओं के साथ पूरी सहानुभूति होते हुए भी चूँकि वह इमारत 12 वर्षों से अधिक समय से सिखों के कब्जे में है अतः लिमिटेशन एक्ट के तहत इसका अधिकार मुस्लिमों को नहीं दिया जा सकता।
जिस दूसरे पहलू की ओर सच्चर साहब ने इशारा किया है वह यह कि जब तक अयोध्या-बाबरी मामला कोर्ट में था तब तक एक पक्ष उस जगह पर कब्जा नहीं कर सकता। इस लिहाज से हिंदुत्ववादी साम्प्रदायिक शक्तियों द्वारा मस्जिद को ढहा दिए जाने से उनका कानूनी दावा कायदे से खत्म हो जाना चाहिए।
फैसले के पहले की उम्मीदें
यह फैसला आने के बाद कई तरह की प्रतिक्रियाएँ आई हैं। फैसले के पहले तक आम लोगों की चर्चाओं में तोड़ी गई बाबरी मस्जिद का क्या होना चाहिए, इस पर अलग-अलग राय रहती थी। उग्र हिन्दुत्व के पैरोकारों को छोड़ दें तो ज्यादातर सयाने किस्म के लोग, जो हिन्दू भी थे और मुसलमान भी, सोचते थे कि वहाँ कुछ राष्ट्रीय स्मारक या सार्वजनिक उद्यान या खैराती अस्पताल या सर्वधर्म समभाव का एक केन्द्र या ऐसा कुछ बना देना चाहिए ताकि देश के किसी भी तबके का उससे कोई धार्मिक भावना आधारित जुड़ाव न रहे और एक राष्ट्रीय भावना के तहत उसे देखा जाए। कुछ लोग तो उस स्थान पर गरीबों के लिए मुफ्त सुलभ शौचालय बनाने जैसे मशविरे के भी हक में थे। पहली नजर में धर्मनिरपेक्ष और भेदभावरहित लगते ये मशविरे दरअसल साम्प्रदायिक हिंसा से भयभीत समाज की वह प्रतिक्रिया थी जिसमें वह राष्ट्रवाद का सुरक्षित कवच ढँूढ़ रहा था। बेशक अगर ऐसा कोई फैसला किया जाता तो वह देश के करोड़ों मुसलमानों की भावनाओं के साथ न्याय नहीं कहा जा सकता था, लेकिन शायद फिर भी वह साम्प्रदायिक राजनीति करने वालों के खिलाफ एक प्रगतिशील फैसला होता। कम से कम वह इस देश के अल्पसंख्यकों को यह भरोसा तो दे सकता था कि न्याय व्यवस्था भले उनके साथ न्याय न कर पाई हो लेकिन उसने हत्यारे हिंदुत्ववादी साम्प्रदायिकों का पक्ष तो नहीं लिया।
तात्कालिक शान्ति से ज्यादा जो देश में न्याय और धर्मनिरपेक्षता के भविष्य के प्रति चिंतित लोग थे, उनका स्पष्ट मानना था कि चाहे कितनी ही सख्ती से पेश आना पड़े, साम्प्रदायिक ताकतों को यह स्पष्ट संदेश जाना चाहिए कि इस देश में यह राजनीति बर्दाश्त नहीं की जाएगी। उनका मत था कि मस्जिद की जगह पहले मस्जिद बने, जिन्होंने उसे तोड़ा और तोड़ने के लिए उकसाया, उन्हें उसकी सजा मिले, उसके बाद दोनों समुदायों के भीतर आम लोगों का मेलजोल बढ़ाया जाए और अगर सामुदायिक सहमति से कोई और रास्ता निकलता है तो उसकी तरफ समझबूझ कर आगे बढ़ा जाए।
यह न्याय का रास्ता था। अगर यह फैसला होता तो यह हर किस्म की फिरकापरस्त ताकतों को एक साफ इशारा होता। इससे हिन्दू, मुसलमान और हर समुदाय के भीतर उदार और इंसाफपसंद ताकतों को इज्जत मिलती। बाबरी मस्जिद के फैसले से कई टूटी चीजों को इतनी मजबूती से जोड़ा जा सकता था कि जो दरार 1992 में मस्जिद गिराकर चैड़ी की गई थी और जिसमें 2002 में गुजरात में खून उड़ेला गया था, वह भरनी शुरु हो जाती।
लेकिन यह साहस और जोखिम का रास्ता था। ऐसा जोखिम नोआखली और बँटवारे के दौरान गांधीजी ने उठाया था और अपनी जान देकर भी धर्मनिरपेक्षता का एक मूल्य बनाया था। साहस नैतिकता से पैदा होता है। शाहबानो प्रकरण में मुस्लिम तुष्टीकरण करके, अयोध्या के मंदिर के ताले खुलवाकर और फिर उसके जवाब में रथयात्राओं व सरकार की शह पर मस्जिद तुड़वाकर जिस तरह की राजनीति आगे बढ़ी, उससे इस नैतिकता की उम्मीद करना मुश्किल है।
वास्तविक राजनीति को और उसके बदलावों को करीब से देख-परख रहे इंसाफ तलब लोगों को इलाहाबाद न्यायालय के फैसले से ज्यादा उम्मीदें नहीं थीं। उनका मानना था कि पुरातत्व विभाग द्वारा 2002-03 में करवाई गई खुदाई और उसे साजिशाना तरीके से उलटने-पलटने का जो रास्ता भाजपा नेतृत्व वाली सरकार ने चुना था, काँग्रेस की सरकार कल्पनाशील और मौलिक तरह से कुछ बदलाव भले करे लेकिन वह भी न्याय के रास्ते पर चलने का जोखिम उठानेवाली नहीं है। ज्यादा से ज्यादा यह होता कि तारीखें आगे खिसकती रहतीं और फिर यह सिरदर्द नई सरकार के माथे पर मढ़ दिया जाता। जो जनपक्षीय ताकतें कुछ कर सकती थीं, वे साम्प्रदायिकता के साथ जुड़ी राजनीति के घृणित चेहरे को बेनकाब करने का काम करने में जुटी रहीं और जुटी हुई हैं लेकिन संगठित राजनैतिक प्रयासों के सामने ये कोशिशें, कम से कम अब तक तो बेहद नाकाफी साबित हुई हैं।
फैसले के बाद
फैसले के बाद कुछ ने तो चैन की साँस ली कि चलो फिर से दंगा नहीं हुआ। कुछ ने न्यायाधीशों की बुद्धिमत्ता को भी सराहा कि उन्होंने कितना अच्छा फैसला किया कि सबको कुछ-कुछ मिल गया। फैसले के बाद रही शांति को भी लोगों ने अलग-अलग नजरिए से देखा। कुछ ने इसे भारतीय जनता और समाज की गहरी सौहार्द्रता और समझदारी बताया कि सबकुछ शांति से निपट गया। कुछ ने यहाँ तक भी दावा किया कि भारत की आम जनता ने साम्प्रदायिकता को नकार दिया है। चैनलों और अखबारों ने फैसला आने के पहले से लेकर फैसला आने के बाद तक विशेष प्रस्तुतियाँ दीं। युवाओं से उनकी राय ली गई और जब उन्होंने कहा कि उनकी इस मामले में कोई दिलचस्पी नहीं है तो उसका अर्थ यह भी निकाला गया कि देखिए, आज का युवा कितना समझदार है, जो इन फालतू मामलों में दिलचस्पी नहीं ले रहा है।
इस तरह की थकी हुई प्रतिक्रियाएँ दुखी करती हैं। लेकिन गनीमत है कि सब ऐसा नहीं सोचते। मुल्क की राजनीति, नौकरशाही, फौज और अब न्यायालय तक में फैलाए जा चुके साम्प्रदायिक ज़हर के सामने सभी ने हथियार नहीं डाल दिए हैं। कुछ हैं, और वे कुछ भी बहुत हैं, जो भरपूर साहस और जोखिम के साथ भाजपा और आर0एस0एस0 की ही नहीं बल्कि काँग्रेस और बाकी राजनैतिक-सामाजिक समूहों की साम्प्रदायिक साजिशों से मोर्चा ले रहे हैं।
मीडिया के लिए अयोध्या का फैसला एक सनसनीखे़ज फ़ैसला था जो इरादतन या गैर इरादतन काॅमनवेल्थ खेलों के आसपास हुआ। काॅमनवेल्थ खेलों में हुए भ्रष्टाचार की आँच देशभर में महसूस की जाने लगी थी और अगर उसी वक्त अयोध्या का मुद्दा ध्यान न भटका देता तो दिल्ली में बैठी सरकार को अपने कुछ सिपहसालारों और अफसरों से हाथ तो धोना ही पड़ता और इज्जत तब भी न बचती। ऐसे में अयोध्या का फैसला आना फौरी तौर पर इस शिकंजे से निजात पाने का अच्छा बहाना बना और अयोध्या मामले में न्यायपालिका ने जो कारगुजारियाँ की थीं, उन पर जनता का ध्यान जा सके और वह मुद्दा आगे बढ़ सके, उसके पहले ही सारे देश को राष्ट्रमंडल खेलों ने फिर राष्ट्रीयता के बुखार में जकड़ दिया। मीडिया सब भूल गया और स्वर्ण पदकों के यशोगान में लग गया। वह बुखार अरुंधति राॅय के कश्मीर पर दिए बयान से और बढ़ गया, जो आखिर में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा द्वारा जय हिन्द कह दिए जाने से आसमान पर चढ़ गया। बस दो महीनों के भीतर राष्ट्रीय महत्त्व के प्रमुख मसलों को कैसे एक-दूसरे को काटने के लिए इस्तेमाल किया गया, यह अवसरवादी राजनीति की काबिलियत का एक नमूना भर है।
इसी तरह लोगों की शांति या युवाओं की निस्संगता को समाज की सहिष्णुता और समझदारी समझना एक गलती होगी। आर्थिक रूप से निचले तबके के अधिकतर मुसलमानों के मन में इस फैसले से भारतीय न्याय व्यवस्था के बारे में उनकी राय पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। वे देश के अपनी तरह के हिन्दुओं की ही तरह पहले से ही न्याय व्यवस्था के बारे में कोई अच्छी राय नहीं रखते हो सकते। पिछले कुछ वर्षों में उनके साथ भारतीय राज्य द्वारा, और आमतौर पर भी जो अपमानजनक सुलूक कभी सिमी तो कभी पाकिस्तान परस्ती के बहानों के साथ बढ़ता रहा है, उसका दंश कुछ और गहरा हो जाएगा। इसी अपमान के साथ भीतर ही भीतर वे सुलगते रहते हैं और फिर मुस्लिमों के भीतर मौजूद फिरकापरस्त ताकतें उस गुस्से को ही हथियार बनाती हैं। हिन्दुओं के भीतर मौजूद साम्प्रदायिक ताकतें बेरोजगार या गरीब नौजवान हिन्दुओं को एक छद्म राष्ट्रीय गौरव के अलौकिक और सत्ता सामीप्य के अवसरों के लाभों के लौकिक आधारों पर नचवाती हैं।
मध्यमवर्गीय हिन्दू किसी तरह का नुकसान न होने से प्रसन्न है और मध्यमवर्गीय मुस्लिम भी। लेकिन इस फैसले ने एक मध्यमवर्गीय नागरिक की पहचान को उसके भीतर सिकोड़ दिया है और एक सहमे मुस्लिम की पहचान को गहरा कर दिया है। इस फैसले ने उसे इस देश का नागरिक होने की बनिस्बत इस देश का सहमा हुआ मुसलमान बना दिया है। जिस देश में वह पीढ़ियों से बराबरी की हैसियत से रहा, वहाँ उसका मन यह स्वीकारने को तैयार होने लगा है कि भारत में उसकी स्थिति दोयम दर्जे की रहने वाली है। आर्थिक रूप से भले वह बेहतर स्थिति में हो लेकिन सामाजिक अलगाव उसे धीरे-धीरे अपनी तरह के सहमे और क्षुब्ध लोगों के पास ले जाएगा। अधिकांश मध्यमवर्गीय मुस्लिम नौजवान या तो औरों की तरह ही किसी तरह अपने से और ऊँचे वर्ग में शामिल होने के कैरियर युद्ध में शामिल हैं, या फिर वे एक सही मौका तलाश कर देश के बाहर अमेरिका या यूरोप या खाड़ी के देशों में ही कहीं चले जाना चाहते हैं ताकि हिन्दुस्तान में रहते हुए उन्हें अपनी दूसरे दर्जे की पहचान बार-बार याद न आए।
मुस्लिम समुदाय के भीतर एक और समस्याजनक स्थिति यह है कि कई दशकों से इसके पास कोई प्रगतिशील नेतृत्व गैरमौजूद है। मौलाना अबुल कलाम आजाद के बाद ऐसा कोई नेता नहीं है जिसकी व्यापक सामुदायिक व अन्य समुदायों में स्वीकृति हो, जो सत्ता के स्वार्थों का मोहरा न हो और जो कठमुल्लावाद को चुनौती दे सके। ऐसे में मुस्लिम समुदाय एक तरफ हिन्दू सम्प्रदायवादियों से और दूसरी तरफ शहाबुद्दीन या शाही इमाम जैसे प्रतिक्रियावादी स्वार्थी राजनैतिक तत्वों के बीच फँसा हुआ है। एक तरफ बदहाली और फौजी ज्यादतियों के खिलाफ कश्मीर में किए जाने वाले उसके संघर्ष को मुस्लिम आतंकवाद का लेबल चस्पा करके पेश किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर वह अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए मजबूर है कि वह हिंदुस्तान के प्रति हिंदुओं से भी ज्यादा वफादार दिखायी दे।
फैसले के असर और आगे की तैयारी
इस फैसले का असर तो सब पर पड़ रहा है चाहे कोई उसे तत्काल महसूस करे या बाद में। किसी भी तरह के व्यापक लोकतांत्रिक आंदोलन के अभाव में मुस्लिमों के पास यह गुंजाइश भी कम है कि वे किसी तरह अपने मजहबी खोल से बाहर आकर देश के दीगर परेशानहाल तबकों के साथ किसी संघर्ष का हिस्सा बनें। मुस्लिम समुदाय के अलावा यह फैसला हम जैसों को भी बहुत क्षुब्ध करने वाला है जो इस देश में अपने-अपने स्तर पर छोटे-छोटे समूहों, संस्थाओं या मुट्ठीभर लोगों के आंदोलनों से साम्प्रदायिक फासीवाद के उभार को रोकने की हर मुमकिन कोशिश कर रहे हैं। भले इससे धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की हिफाजत में लगे लोगों के हौसले कमजोर नहीं होते हों लेकिन ऐसे हर फैसले से साम्प्रदायिकता की आँच में झुलस चुके और झुलस रहे लोगों का धर्मनिरपेक्षता और अमन की कोशिशों पर भरोसा कमजोर होता है।
जो फैसला आया है, वह जमीन तो बेशक तीन हिस्सों में बाँटता है लेकिन भरोसा सिर्फ हिन्दू साम्प्रदायिक ताकतों को देता है। वह 1949 में बाबरी मस्जिद के भीतर जबर्दस्ती रखी गई मूर्तियों को उनके सही स्थान पर प्रतिष्ठित करना ठीक मानता है और 1992 में बाबरी मस्जिद ढहाए जाने में कोई हर्ज नहीं देखता। इस तरह यह फैसला भले जमीन का तीसरा हिस्सा मुस्लिम वक्फ बोर्ड को दे देता हो लेकिन हौसला वह साम्प्रदायिक हिन्दुत्ववादियों का बढ़ाता है। दरअसल यह फैसला एक तरह से इस देश के छलनी भविष्य की बुनियाद डालता है जहाँ अतीत वर्तमान को इंच-इंच खोदकर लहूलुहान कर सकता है। अयोध्या का फैसला अगर बदला नहीं गया तो केवल काशी-मथुरा या धार (मध्य प्रदेश) ही नहीं, हर शहर और हर मुहल्ले के मंदिर-मस्जिद खुदने शुरु हो सकते हैं। इस देश का इतिहास इतना पुराना है कि कोई ठिकाना नहीं कि किसके कितने गड़े मुर्दे कहाँ-कहाँ निकलेंगे।
यह तय है कि न्याय के नाम पर अन्याय करने वाले इतनी आसानी से इसलिए भी अन्याय कर पा रहे हैं क्योंकि उन्हें न अपने खिलाफ लगने वाले इल्जामों की परवाह है और न ही किसी जबर्दस्त विरोध की आशंका। वक्फ बोर्ड या सुप्रीम कोर्ट क्या करता है, इस बारे में न तो कुछ कहा जा सकता है और न ही उनसे उम्मीदें लगाकर खामोश बैठा जा सकता है। मसला कानूनी है और अदालती कार्रवाई चलनी ही चाहिए और वह भी इस तरह कि देश के लोगों तक भी ये तथ्य पहुँच सकें कि किस तरह न्यायाधीशों ने तथ्यों का मनचाहा निरूपण करके कानून का मखौल उड़ाया है।
लेकिन यह मसला सिर्फ कानूनी कार्रवाई करने से नहीं सुलझने वाला। जो राजनैतिक दल इस फैसले को संविधान की कब्र मानते हैं उन्हें तमाम मतभेदों के लिए अलग गुंजाइश रखते हुए इस मसले पर साझा रणनीति बनानी जरूरी है। इस रणनीति में केवल संसद के भीतर की जाने वाली बहस ही नहीं बल्कि अपने-अपने जनाधारों के भीतर इस मसले पर लोगों के दिमाग साफ करने की अनिवार्य कार्ययोजना होनी चाहिए। ट्रेड यूनियन, विद्यार्थी व युवा मोर्चे, महिला संगठन व सांस्कृतिक संगठनों को एक समन्वित योजना बनानी होगी।
राजनैतिक दलों के साथ ही अन्य जनतांत्रिक संगठनों को भी इस मसले की गंभीरता समझते हुए अपने मुद्दों की सीमा रेखा पार कर आगे आना होगा। देश की अमेरिकापरस्त ग्लोबलाइजेशन की नीतियों की वजह से शहरों में और गाँवों में हर जगह मजलूमों की, गरीबों की तादाद बढ़ रही है। बाँध विस्थापित हों या दलित या छोटे किसान या महिलाएँ या आदिवासी, सभी व्यवस्था से पीड़ित लोग आज अनेक छोटे-बड़े आंदोलनों की शक्ल में भारतीय राज्य के सामने सवाल उठा रहे हैं। संघर्षों ने इन आंदोलनकारियों को जनवादी और प्रगतिशील बनाया है। इनके बीच भी इस मसले को ले जाने और उन्हें इस मामले में शिक्षित करने की जरूरत है।
रास्ते और भी तमाम हो सकते हैं लेकिन देश में धर्मनिपेक्षता का विकल्प कोई नहीं हो सकता। समाजवाद तो हम बना नहीं पाए, जैसे तैसे यह ही एक उपलब्धि हमारी बची रही है कि हम एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र हैं। अब इसे भी नहीं बचा सके तो हम स्वार्थी सत्ता द्वारा जल्द ही बर्बर युग में फेंक दिए जाएँगे।
-विनीत तिवारी
(लेखक सुप्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता हैं)
मोबाइल-09893192740
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