‘‘ट्रिंग.... ट्रिंग’’ फोन की घंटी घनघनाई। मालती वर्मा ने कुर्सी से उठकर अपने घुटनों की मर्मांतक पीड़ा से उबरने का प्रयास किया। फिर धीरे–धीरे चलकर चोगे तक पहुँचीं। दूसरे सिरे पर दूर शहर से उनकी हमउम्र शीला थी। दोनों अब पैंसठ की उम्र तक जा पहुँची हैं। ‘‘और मालती, कैसी हो ?.. भाई साहब कैसे हैं ?’’ मालती वर्मा के होठों पर मुस्कुराहट तिर गई। ‘‘ठीक हैं हम लोग। तू सुना बड़े दिनों के बाद याद किया।’’ ‘‘बस यों ही। सोचा, चलो हालचाल ही पूछ लूँ।’’ ‘‘तुमलोग कैसे हो ?’’ ‘‘प्रभु–कृपा है। उसे ही याद करते हैं। अब उम्र ही ऐसी ठहरी।’’ शीला की हँसी सुनाई देती है। मालती ने आगे पूछा, ‘‘दोनों बेटे–बहुएं, बच्चे कैसे हैं ?’’ ‘‘मजे में हैं। हम दोनों का बहुत खयाल रखते हैं।’’ शीला झूठ बोल गई। दोनों बेटे तो कब से उनसे अलग होकर रहने लगे हैं। अब कहने की बारी उस ओर से थी। ‘‘तुम्हारा रोहित तो अकेला ही लाखों में एक है। तुम दोनों की खूब सेवा करता होगा ?’’ ‘‘हाँ’’, कहते हुए मालती वर्मा हँस पड़ीं, एक नकली हँसी जो चेहरे पर साफ झलक रही थी, पर इस समय उसका चेहरा देखने वाला वहां कोई नहीं था। थीं तो सिर्फ़ सहलाती हुई आवाजें। अब मालती वर्मा अपनी सहेली को क्या बताए कि उनका श्रवण कुमार तो पिछले चार वर्षों से विदेश में है। | ||
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लघुकथा- ठीक हैं हम
Posted by रतन चंद 'रत्नेश'
Posted on शनिवार, मई 08, 2010
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3 comments:
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मार्मिक लघुकथा
जवाब देंहटाएंवर्तमान परिपेक्ष में आपका लेख स्टीक बैठता है ! शानदार !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद वर्मा जी, बाली जी
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