गाँव में जाने पर सारी दिनचर्या बदल जाती है। समय से बँधे रहने के सिलसिले में भी पूर्णविराम–सा लग जाता है। न कोई आपाधापी और न कोई तनाव। यहाँ तक कि दुनिया में कहाँ क्या हो रहा है, यह जानने की भी चिन्ता नही सताती। न ही समाचारपत्रों को नियम से देखने का चाव रहता है और न ही रेडियो–टीवी से चिपककर बैठने का। वैसे भी गाँव के समीप बस–अड्डे पर छितराई हुई दुकानों में समाचारपत्र बहुत देर से पहुँचते हैं। तब तक हम जैसे लोगों का पढ़ने का मज़ा ही जाता रहता है जिन्हें अलस्सुबह समाचारपत्र बाँचने की आदत हो। एक दिन मैं यों ही पूरन की दुकान पर बैठा चाय की चुस्कियाँ ले रहा था कि आने वाली बस से दलीपा राम जी उतरे। वे हमारे गाँव के प्राइमरी स्कूल के शिक्षक हैं। मुझे इल्म था कि इन दिनों वे अपनी पुत्री के लिए किसी योग्य–वर की तलाश में हैं। वे मुझे भी अपनी बिरादरी का कोई लड़का शहर में देखने के लिए कह चुके थे। उन्हें देखते ही मैंने पूछा, ‘‘मास्टर जी, कहाँ से तशरीफ ला रहे हैं ?’’ ‘‘बस पास ही के एक गाँव में गया था।’’ मैं उठकर उनके समीप जा पहुँचा। ‘‘कोई लड़का मिला ?’’ मैंने पूछा। ‘‘उसी सिलसिले में तो गया था।’’ ’‘फिर ... बात बनी कोई ?’’ ‘‘वैसे तो सब ठीक है पर.....’’ ‘‘क्या दहेज–वहेज का कोई अड़ंगा ?’’ ‘‘नहीं–नहीं.. ऐसा कुछ नहीं है। लड़का भी ठीक है, सरकारी नौकरी पर है, घर–बार भी प्राय: ठीक ही है...’’ ‘‘तो फिर कौन–सी समस्या आड़े आ रही है, मास्टर जी?’’ ‘‘बस, लड़के को नौकरी में ऊपरी कमाई कोई नहीं है। आपको तो पता ही है कि आजकल सरकारी नौकरी में ऊपरी कमाई न हो तो.......।’’ | ||
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लघुकथा- समस्या
Posted by रतन चंद 'रत्नेश'
Posted on सोमवार, मई 10, 2010
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4 comments:
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सटीक कटाक्ष...
जवाब देंहटाएंलड़कीवाले भी कितने 'चूज़ी' हो गए हैं! बेचारा ईमानदार और गलत यानी रिश्वत की आमदनी से विहीन नौकरी में फँस गया युवक अब विवाह की दृष्टि से 'योग्य' नहीं रह गया है। स्तरीय व्यंग्य। बधाई।
जवाब देंहटाएंThanks
जवाब देंहटाएंउपरी कमाई अब आम परिवारों में भी अपराध नहीं माना जाता है
जवाब देंहटाएंविवाह में आर्थिक स्थिती ही प्रमुख हो ग ई है प्रेम विवाह का आधार
भारत मे नही है अच्छी लघुकथा