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इक्कीसवीं सदी का पहला लाल सितारा-नेपाल : 1




बन्ने भाई एक शाम हल्के नशे में घर लौटे। पैर थोड़े लड़खड़ा रहे थे। आँखों में थोड़ी मस्ती थी और कुछ गुनगुना रहे थे। उनकी बेगम ने जब उन्हें देखा तो बोलीं, ‘‘कोई शर्म-लिहाज है कि नहीं आपको। आज सरे-शाम ही पी ली। बच्चे जाग रहे हैं, क्या सोचेंगे?’’ बन्ने भाई बोले, ‘‘बेगम, आज कुछ न कहो, आज मैं बेहद खुश हूँ।’’ बेगम कहाँ सुनने वाली थीं, बोलीं,‘‘क्यों, आज कौन आसमान से खुशियाँ टपक पड़ी हैं, जो मैं आज आपकी इस हरकत पर कुछ न कहूँ?’’
बन्ने मियाँ बेगम के नजदीक आकर बड़े रूमानी अंदाज में बोले,‘‘बेगम, आज अल्जीरिया आजाद हो गया।’’
आप पहचान गए होंगे कि ये बन्ने मियाँ थे, भारत में प्रगतिशील लेखक संघ की नींव रखने वाले और पाकिस्तान में बरसों तक जेल काटने वाले काॅमरेड सज्जाद ज़हीर और उनकी बेगम रज़िया सज्जाद ज़हीर। वर्ष था 1962।
यह किस्सा उनकी छोटी बेटी नूर ने हमें सुनाया था और नूर ज़हीर की किताब में भी यह मौजूद है। मैंने याददाश्त के आधार पर इसे लिखा है इसलिए थोड़े-बहुत फर्क की माफी चाहते हुए मैं कहना यह चाह रहा हूँ कि 1962 से चालीस से भी ज्यादा बरसों के बाद ऐसी खुशी, जैसी सज्जाद ज़हीर को बहुत दूर के देश अल्जीरिया की आज़ादी से हुई थी, हममें से कितने दिलों में उमगी जब 2006 में हमारे बिल्कुल पड़ोस में मौजूद नेपाल राजशाही से आजाद हुआ।
बेशक इन चार बरसों में आजादी के अर्थ की आभा भी कम हुई है लेकिन इतना तो सभी मानते हैं कि राजशाही से लोकतंत्र में कदम रखना प्रगति की सतत् प्रक्रिया में कुछ महत्त्वपूर्ण कदम आगे बढ़ाना तो है ही, भले वह लोकतंत्र अपने चरित्र में समाजवादी न हो। फिर भी अगर देश-दुनिया में हो रहे जनसंघर्षों को हम लोगों के जेहन में कहीं नहीं पाते या फिर ज्यादा से ज्यादा हाशिये पर पाते हैं तो जाहिर है कि पिछले 15-20 वर्षों में हमारा सामाजिक मूल्यबोध तेजी से बदला है। हम उन्नत तकनीक के जरिये विश्व के सुदूर कोनों तक संपर्क स्थापित कर लेते हैं, हमारे पास अनगिनत विषयों की सूचनाएँ सिर्फ एक बटन दबाने जितनी दूरी पर हैं लेकिन हममें से अधिकांश उस सपने से खाली हैं जो हमारे इस ग्रह पर अस्तित्व को कुछ सार्थकता देता है।
अधिकांश लोगों के पास यह विवेक नहीं है कि उन्हें कहाँ खड़ा होना है। राजनैतिक विचार भी उनके लिए एक पैकेज है कि जहाँ ज्यादा मिला, वहीं चल दिए।....तो ऐसे माहौल में पहले की तुलना में बहुत कम लोग हैं जो याद करें श्रीलंका को, फिलिस्तीन को, श्रीकाकुलम को, हाॅण्डुरास को, दंतेवाड़ा को, ......और नेपाल को।
दरअसल हिन्दुस्तान में ही नहीं, सारी दुनिया में ब्राजील, मैक्सिको, बोलीविया, वेनेजुएला आदि लैटिन अमेरिकी देशों के भीतर बीती सदी के आखिरी बरसों में हुए राजनैतिक परिवर्तनों को जितना महत्त्व हासिल हुआ, उससे बहुत कम तवज्जो नेपाल को मिल सकी। एक वजह तो उसकी बेशक यह है कि क्यूबा की लैटिन अमेरिका में मौजूदगी और उसके प्रतिकूल परिस्थितियों में भी समाजवादी प्रतिबद्धता कायम रखने की कामयाबी ने नए जमाने के पूँजीवाद का गहरा दंश झेल रहे लैटिन अमेरिकी देशों की पीड़ित-शोषित जनता को हौसला दिया कि शोषणमुक्त समाज कायम करने की लड़ाई भी मुमकिन है और उस लड़ाई में कामयाबी भी नामुमकिन नहीं। इसलिए कभी उपनिवेश रहे और बाद में लोकतंत्र की राह चलने वाले देशों के लिए जो किरदार कभी सोवियत संघ ने अदा किया था, अपनी बहुत सीमित ताकत के बावजूद क्यूबा ने वैसी ही जिम्मेदारी लैटिन अमेरिका के भीतर मौजूद देशों के साम्राज्यवाद विरोधी संघर्षों के लिए निभाई।
दो विशालकाय पड़ोसियों के बीच
अगर चीन को क्यूबा जैसा मानने की गलती न की जाए तो नेपाल के पास कोई क्यूबा नहीं है। बल्कि नेपाल की हालत चीन और भारत के दो पाटों के बीच फँसे होने जैसी है। नेपाल की भौगोलिक स्थिति ही वहाँ की विदेश नीति और राजनीति की भी दिशा तय किए रही है। चीन और भारत के बीच सैंडविच बने नेपाल के लिए दोनों में से किसी को भी नाराज करना मुसीबत मोल लेने जैसा है। ऐसी तमाम राजनैतिक घटनाओं से नेपाल का आधुनिक राजनैतिक इतिहास भरा पड़ा है जिसमें एक को नाराज करने का खामियाजा नेपाल को दूसरी तरफ से आए किसी न किसी नये दबाव के रूप में झेलना पड़ा है।
एक तरफ चीन है जो भले ही कहने-दिखने में लाल हो, उसका वामपंथ वामपंथियों के लिए भी उत्तरोत्तर असुविधा का कारण बनता जा रहा है। बेशक सैद्धांतिक तौर पर वह राजशाही के खात्मे को एक प्रगतिशील कदम मानेगा लेकिन सच तो यह है कि नेपाल के राजशाही के तहत बने रहने में उसे कभी कोई नुकसान या कुछ गलत नजर नहीं आया। परंपरागत तौर पर तो चीन और नेपाल के संबंधों में दो शताब्दियों से भी अधिक समय से उथल-पुथल रही है, लेकिन इनमें खासतौर से जो परिवर्तन हाल के संदर्भ में उल्लेखनीय हैं, वे 1949 में चीन में कम्युनिस्ट शासन आने के बाद हुए हैं।
1842 से लगभग 1949 में चीनी इंकलाब होने तक नेपाल के अंतर्राष्ट्रीय संबंधों पर ब्रिटिश-भारतीय प्रभाव की स्पष्ट छाया रही, जो 1972 में राजा बीरेंद्र के नेपाल पर गद्दीनशीन होने तक कभी भारत, कभी अमेरिका तो कभी चीन की तरफ परिस्थिति अनुसार झुकते रहे। जाहिर है, चीन के साथ संबंधों में तिब्बत के प्रश्न की बड़ी भूमिका रही है। एक जमाने में तिब्बत पर चीन के अधिकार को अस्वीकार करने के बाद चीन ने भी नेपाल के साथ अपने रिश्ते समेट लिए थे और नेपाली व्यापारियों का तिब्बत के बैंकों मंे जमा धन भी जब्त कर लिया था। उसी दौर में अमेरिकी दबाव के चलते चीन के खिलाफ तिब्बती विद्राहियों को अपनी जमीन का इस्तेमाल करने की इजाजत भी नेपाल को देनी पड़ी थी। इन संबंधों में कुछ वर्षों के अंतराल के बाद 1962 से 1965 के बीच तनाव कम हुआ तथा चीन ने नेपाली व्यापारियों का धन लौटा दिया और नेपाल ने तिब्बत पर चीन का अधिकार स्वीकार कर लिया।

1950 तक चीन के भीतरी हालात कमजोर थे और वहाँ की जनता खुद एक संक्रमण की अवस्था में थी। उधर दूसरी ओर भारत पर राज कर रहे अंग्रेजों की ताकत बहुत ज्यादा थी। ऐसे में नेपाल पर 1816 से ही ब्रिटिश दबाव बना रहा जो 1846 में शाही परिवार के एक नरसंहार से होते हुए भारत की आजादी के बाद भारत सरकार को हस्तांतरित हो गया। भारत सरकार का रवैया नेपाल के साथ वैसा ही रहा है जैसा अंग्रेजों का भारत या उपनिवेशों के साथ था। एक छोटे देश पर अपना प्रभाव जमा कर एक ओर तो तमाम गैर बराबर समझौतों के जरिये उसका शोषण करना और दूसरी तरफ दक्षिण एशियाई क्षेत्र में अपनी ताकत बढ़ाने के लिए, दिखने में लोकतांत्रिक लेकिन असल में साम्राज्यवादी हथकंडे इस्तेमाल करना। दरअसल भौगोलिक दृष्टि से भारत के साथ नेपाल का सहज-सरल जुड़ाव है जबकि चीन की तरफ से पहुँच मार्ग दुर्गम है, लेकिन भारत के असमानतापूर्ण व्यवहार और संधियों की वजह से नेपाल की कोशिश पिछले 50 वर्षों से यह रहती है कि उसे सहयोग का कोई दूसरा स्रोत भी मिल जाए ताकि भारत पर निर्भरता कुछ कम हो।
सन् 1972 में जब अमेरिका और चीन के बीच एक-दूसरे के खिलाफ चलने वाली सैन्य गतिविधियों को संरक्षण न देने का समझौता हुआ, तब बीरेंद्र शाह ने चीन से नजदीकी बढ़ाने की हिम्मत की जिसे दिल्ली में बैठे भारतीय शासक हिमाकत के तौर पर देखते थे। एकतरफा हुए अनेक भारत-नेपाल समझौतों में से एक यह भी था कि नेपाल अपने सभी रक्षा उपकरण व गोला-बारूद भारत से ही खरीदेगा लेकिन सन् 1988 में भारत सरकार की नाराजगी की परवाह न करते हुए नेपाल ने हथियारों की एक बड़ी खेप चीन से खरीदी।
पड़ोसी देश और भौगोलिक-सामरिक दृष्टि से नेपाल महत्त्वपूर्ण देश होने की वजह से चीन की दिलचस्पी उससे दोस्ताना संबंध बनाये रखने की है यह अलग बात है कि चीन को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि नेपाल में राजशाही है या पूँजीवादी लोकतंत्र या क्रान्तिकारी सरकार। चीन के लिए यह अवश्य चिन्ताजनक स्थिति थी जब 11 सितंबर 2001 के ट्विन टाॅवर्स पर हुए हमले के बाद अमेरिका ने नेपाल के माओवादियों को आतंकवादियों की सूची में डालकर ज्ञानेंद्र के जरिये नेपाल में अमेरिकी सैन्य हस्तक्षेप बढ़ाने की कोशिशें तेज की थीं। ज्ञानेंद्र के 2005-06 में अपदस्थ हो जाने के बाद उस प्रक्रिया पर तो लगाम लग गई, लेकिन चीन को अब दूसरी समस्या यह जरूर सता सकती है कि बिल्कुल उसके पड़ोस में अगर माओवादी सरकार में बने रहते हैं, और वे माक्र्सवाद, लेनिनवाद और माओवाद के आमूल-चूल बदलाव वाले क्रान्तिकारी कार्यक्रम को अमल में लाते हैं तो उसी माक्र्सवाद का नाम लेकर बाजार के सामने परास्त होते और काफी हद तक पूँजीवाद की राह पर बढ़ चुके चीन के भीतर मौजूद असंतुष्ट क्रान्तिकारी ताकतों की हौसला अफज़ाई होगी।
चीन की तरफ तिब्बती सीमा से लगा होने के कारण चीन नेपाल को वहीं तक मदद करता रहा है जहाँ तक चीन के खिलाफ नेपाल को इस्तेमाल न किया जा सके। परंपरागत तौर पर नेपाल का अधिक नजदीक का संबंध भारत से रहा है, चाहे वह प्रेम का हो या घृणा का।

-विनीत तिवारी
लोकसंघर्ष पत्रिका सितम्बर 2010 अंक में प्रकाशित

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