जो लोग नेपाल की क्रान्ति को एक कामयाब क्रान्ति मानकर उत्सव की मनःस्थिति में हैं वे क्रान्ति के सामने आसन्न संकटों को नहीं देख पाने की भारी भूल कर रहे हैं, और जो नेपाल की क्रान्ति को उग्र वामपंथ की एक फौरी जीत मान रहे हैं, वह वर्षों तक चलाई गई एक सुनियोजित क्रान्तिकारी प्रक्रिया को कम करके आँकने की दूसरी तरह की भूल कर रहे हैं। नेपाल के माओवादी क्रान्तिकारी यह अच्छी तरह जानते हैं कि क्रान्ति कर लेना एक बात है, लेकिन उससे ज्यादा मुश्किल है उसे कायम रखना। वे क्रान्ति को कायम कैसे रखते हैं, कैसे अब तक के संघर्ष को आगे बढ़ाते हैं, और वे कामयाबी की दिशा में कितने कदम आगे बढ़ते हैं, इसके बारे में कोई भी पूर्वानुमान बचकाना होगा। लेकिन जो हुआ है, वह कम नहीं हुआ है कि माओवादी नेपाल को राजशाही के घेरे से बाहर निकालकर लाए हैं, उसे कमतर आँकना भी एक बड़ी भूल होगी।
आज नेपाल की क्रान्ति जिस दलदल में फँसी है, जाहिर है उससे बाहर निकालने के लिए वहाँ की क्रान्तिकारी ताकतों को बाहर से कोई मदद हासिल नहीं होने वाली। न दूर से और न ही पास से। ऐसे में उनके पास जो संभावनाएँ हैं वे बहुत सीमित हैं। ऐसे में यह आशा करने के साथ ही कि जिस तरह नेपाल के माओवादी असंभव लगती परिस्थितियों के बीच से क्रान्ति को कुछ कदम आगे लाए हैं, वैसे ही उनकी अनुभव आधारित सूझबूझ उन्हें आगे भी सही रास्ते पर ले जाएगी, हमें, दुनिया भर में मौजूद वामपंथियों को, और खासतौर पर हिन्दुस्तान में अपने आप को वाम कहने वालों को मूक दर्शक बनने के बजाए नेपाल के माओवादियों का अधिकाधिक संभव सहयोग करना चाहिए। नेपाल की इस भूमिका को इक्कीसवीं सदी के समाजवादी इतिहास में आकाश में जगमगाने वाले सबसे पहले तारे की माफिक सम्मानित करना चाहिए। मौजूदा वैश्विक और क्षेत्रीय घटनाओं के मद्देनजर यह असंभव लगे तो बेशक लगे। ज्ञानेन्द्र को राजसिंहासन से अलग करना ही कौन सा मुमकिन कार्य लगता था। और फिर हिन्दुस्तान के प्रखर माक्र्सवादी विद्वान और नेपाल के माओवादियों के लिए भी उतने ही सम्मान्य प्रोफेसर
रणधीर सिंह कहते हैं कि राजनीति दरअसल असंभव लगने वाली परिस्थितियों को संभव बनाना ही तो है।
-विनीत तिवारी
मोबाइल-09893192740
लोकसंघर्ष पत्रिका सितम्बर 2010 अंक में प्रकाशित
(समाप्त)
अच्छी जानकारी है। धन्यवाद। अपको ईद मुबारक।
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