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गुनाह ये , हमने इक बार किया "

गुनाह हमने इक बार किया ------दोस्तों आप कहेगें हमेशा मन की , दिल की बातें करने वाला मनवा ( मन और दिल दोनों अलग अलग है जैसे प्रेम और इश्क भिन्न हैं ) आज गुनाह की बातें कैसे करने लगा आपने सही ही सोचा - गुनाह की बात तो है और गुनाह भी ऐसा वैसा नहीं बहुत ही संगीन जुर्म की बात है इक ऐसा जुर्म जिसकी कोई सजा आजतक तय नहीं की जा सकी है --ना सजाये मौत और ना उम्र कैद ही . वो क्या है ना दोस्तों की सजाये मौत में तो हम इक बार मर कर गुनाह से छुट जाते है और उम्र कैद में उम्र ख़तम होते ही आपका जुर्म आपके साथ चला जाता है आपको लोग माफ भी कर देते है ( यदा कदा) मतलब दोनों ही सूरतों में जिंदगी के ख़तम होने पर गुनाह का दर्द और सजा दोनों ख़तम
लेकिन मैं जिस गुनाह की बात कर रही हूँ उसमे फांसी इक बार में आपका गला नहीं घोटती यहाँ हर पल धीरे धीरे आपक दम घुटता है फंदा हर पल आपके गले पर कसता जाता है फिर भी कमाल ये की आप सारी दुनिया को ज़िंदा दिखते है
इस में उम्र ख़तम हो जाने पर भी कैद ख़तम नहीं होती हम सदियाँ सदियाँ वियावानों में भटकते रहते हैं की फिर जनम ले तो शायद चैन मिले जिसके लिए मिटे थे शायद वो मिले लेकिन वो नहीं मिलता और हम फिर से मर जाते है लेकिन नहीं मरता हमारा गुनाह
अभी तक नहीं समझे दोस्तों की कौनसा गुनाह अब आप ऐसे भी नादाँ नहीं की नहीं समझे -जी हाँ किसी को मन में बसाने का गुनाह किसी के लिए मर मिटने का जुर्म किसी को प्रेम करने का किसी को अपनी धडकनों में बसा लेने की जुर्रत लेकिन क्या ये सब जानबूझ कर करते है हम नहीं न , प्रेम तो वो खुशबू है जो खुद बखुद पहचानी जाती है , खुद ही उठती है और खुद ही विलीन हो जाती है , किसी ने कहा है "" हो के निछावर फूल ने बुत से कहा -ख़ाक में मिल कर भी मैं खुशबू बचा ले जाऊँगा ""

दोस्तों , ये कमाल है प्रेम का , आप हम ख़ाक हो जाते है लेकिन प्रेम की सुगंध कभी नहीं मरती और वो बुत (पत्थरों के )जिन प आर हजारों सालों से फूल न्योछावर हो रहे हैं वे जस के तस रहते हैं न वो पिघलते हैं ना रोते हैं ना मिटते ही हैं
अजीब बात है दोस्तों इन पत्थरों को फूलों की कोमल खुशबू और नाजुक स्पर्श भी नहीं हिला पाते हैं बुत तो है बुत बुत का एतबार क्या कीजे
सबका अपना अपना मसला है कोई मिटने के लिए जिन्दा है तो कोई सिर्फ मिटाने पर आमादा है सबके अपने अपने अंदाज हैं किसी को प्रेम करने , विश्वास करने का , तो कोई पूरी जिन्दगी अविश्वास और भ्रम में ही जीते जाते है
किसी को सही , भी गलत नजर आता है तो कोई गलत को भी सही समझ कर गले लगा लेता है -
कोई प्रेम को गुनाह मानता है तो कोई खुदा की इबादत इस गुनाह को करने वाला गुनाहगार भस्मासुर की तरह खुद ही इक दिन भस्म हो जाता है
ये , ऐसा सावन है जो आपको और प्यासा कर जाता है . घबरा कर हम मौत की दुआ माँगते है तो वो भी नहीं मिलती --हम तौबा करते है की या खुदा अब कभी ये गुनाह नही होगा . तीसरी कसम के हिरामन की तरह कसम भी खाते हैं और बार बार यही गुनाह करते है आज गुलजार साहब की कही बात याद आ रही है की
"" आदतन तुमने कर दिए वादे "
आदतन हमने एतबार किया "
तेरी राहों में वाराह रुक रुक कर "
हमने अपना ही इन्तजार किया "
अब ना मांगेगे , जिन्दगी या रब "
ये गुनाह हमने इक बार किया

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