मैं राहे ज़िंदगी पे चलता जाता हूँ
अहसासे रूह मगर मैं करता जाता हूँ
चोटों से ज़िंदगी की मैंने सीखा है
ज़ख्मों को यों तभी अपने भरता जाता हूँ
दुःख दरदों से कभी डरना कैसा है अपने
दर्दमंदों के मगर दरद से मैं मरता जाता हूँ
इन्सा जो भी वफा की राहों पे चलते हैं
उनका मैं तो हमेशा ही सजदा करता जाता हूँ
सच की राहें बड़ी है आसाँ चलने को
पैगामे ज़िंदगी मैं ऐसा कहता जाता हूँ !!
--अश्विनी रमेश !
बेहतरीन ग़ज़ल....बहुत खूब.....
जवाब देंहटाएंसुषमा जी,
जवाब देंहटाएंटिप्पणी के लिए तह दिल से शुक्रिया !वाकई आप एक जागरूक लेखक/पाठक हैं !
मैं राहे ज़िंदगी पे चलता जाता हूँ
जवाब देंहटाएंअहसासे रूह मगर मैं करता जाता हूँ
adbhut aihsas.....prerna dayak.....rachna..
deepak kuluvi
चोटों से ज़िंदगी की मैंने सीखा है
जवाब देंहटाएंज़ख्मों को यों तभी अपने भरता जाता हूँ....
वाह क्या बात है.... लगता है जैसे ये मेरी ही जिन्दगी का फलसफा है
दीपक जी,
जवाब देंहटाएंदाद के लिए शुक्रिया !
अनिल जी,
जवाब देंहटाएंपसंदीता शेर सहित गज़ल पर दाद के लिए शुक्रिया !