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मैं राहे ज़िंदगी पे चलता जाता हूँ--गज़ल




मैं राहे ज़िंदगी पे चलता जाता हूँ
अहसासे रूह मगर मैं करता जाता हूँ

चोटों से ज़िंदगी की मैंने सीखा है
ज़ख्मों को यों तभी अपने भरता जाता हूँ

दुःख दरदों से कभी डरना कैसा है अपने
दर्दमंदों के मगर दरद से मैं मरता जाता हूँ

इन्सा जो भी वफा की राहों पे चलते हैं
उनका मैं तो हमेशा ही सजदा करता जाता हूँ

सच की राहें बड़ी है आसाँ चलने को
पैगामे ज़िंदगी मैं ऐसा कहता जाता हूँ        !!
                                                             --अश्विनी रमेश !

6 comments:

  1. सुषमा जी,
    टिप्पणी के लिए तह दिल से शुक्रिया !वाकई आप एक जागरूक लेखक/पाठक हैं !

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  2. मैं राहे ज़िंदगी पे चलता जाता हूँ
    अहसासे रूह मगर मैं करता जाता हूँ

    adbhut aihsas.....prerna dayak.....rachna..

    deepak kuluvi

    जवाब देंहटाएं
  3. चोटों से ज़िंदगी की मैंने सीखा है
    ज़ख्मों को यों तभी अपने भरता जाता हूँ....
    वाह क्या बात है.... लगता है जैसे ये मेरी ही जिन्दगी का फलसफा है

    जवाब देंहटाएं
  4. दीपक जी,
    दाद के लिए शुक्रिया !

    जवाब देंहटाएं
  5. अनिल जी,
    पसंदीता शेर सहित गज़ल पर दाद के लिए शुक्रिया !

    जवाब देंहटाएं

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