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मेरे पहाड़


काफी लंबे अंतराल के पश्‍चात
मैं तुम से
मिलने आया था
मेरे पहाड़ ।

पर जब
तुम्‍हारे पास आया
तो लगा नहीं कि
तुम वही हो
जिससे मिलने
नजर भर देखने को
मैं अपने मन में
तड़प लिए
तरसता था ।
है तो
तुम्‍हारी काया
उसी शुचित माटी से ढकी
और पहने हुए हो मुकुट
देवदार, चीड़ के
छितरा गए पेड़ों का
जल भी
पहले सा ही
बेशक शीतल है
लेकिन बदल गया है कुछ
तो वह है हवा
और हवा का रूख ।

सौंदर्यकरण, प्रगति और
आधुनिकरण के रथ पर सवार
पर्यटकों को
लुभाने के मोह में
ऊंचे, लंबे देवदार के
घने पेड़, मगर
नंगे और सूखते
उखडते जा रहे हैं
जड़ों से ही ।
 
मेरे पहाड़ !
तुम तो सचमुच
एकदम बदल गए हो
और बदलते ही जा रहे हो
बदलने की इस दौड़ में
नंग धडंग होते जा रहे हो
मुकुट विहीन, श्रीहीन
जैसे कोई ऋषि केशविहीन
जैसे कोई तपस्‍वी जटाविहीन । 

मेरे पहाड़ !
क्‍या तुम
महानगर बनने की
होड़ में हो ?
महानगर जहां साधन है
लेकिन संवेदनाएं नहीं
सुख, सुविधा, एशोआराम है
पर संतोष नहीं
भीड़ है मगर दिल नहीं
रफ्तार है मगर पड़ाव नहीं
कोमल भाव हैं भी तो
कद्र करने वाले नहीं ।
मेरे पहाड़ !
क्‍या तुम भी
महानगरों से पिछड़ने के डर से
इस अंधी दौड़ में
शामिल हो चुके हो
अपनी मर्जी से
या फिर
किये गए हो
जबरन शामिल ?
        

o शेर सिंह, के. के. –100, 

कविनगर,गाजियाबाद - 201 001.

  • मेरी यह कविता विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं में छप चुकी है ।

2 comments:

  1. शेर सिंह जी ,पहाड़ पर होते परिवर्तन की चिंता करती ,आपकी यह अच्छी कविता है !

    जवाब देंहटाएं
  2. वाह शेर सिंह जी बहुत खूबसूरत हैं आपके हमारे पहाड़ और शायद हम दोनों ही दूर हो गए इनसे बहुत याद आती है
    मेरे घर के सामने व्यास पार्वती संगम के साथ लगते सुन्दर पहाड़

    दीपक कुल्लुवी
    9350078399

    जवाब देंहटाएं

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