आम और महुए से
झड के आती
हवाओं ने
जब कभी
जिन्दगी के वर्क पलते...
...मरुस्थल में
कटहल के पेड़ों से,
उसे
बबूल के कांटे
चुनते पाया
वो बबूल के कांटे
जो उग आये थे
उस राह के दोनों तरफ
के मखमली पेड़ों पे
जिनके बीज
बोये थे तुमने
अपने फरेब के साथ
मेरे जले खतों की
उर्वरा ड़ाल के
जो कभी लिखे थे
मैंने लालटेन की रौशनी में
वफ़ा की स्याही से....
रात के सन्नाटें को चीरती
अर्ध चंद्रमा की
नीमरोशनी में
अब भी आती है
आवाजे
उन मखमली बदन
पेड़ों की
जो मुझे
मेरे ख्वाबों से
जगा देती हैं
और लगाती है
मेरे बदन पे
वो लहू
जो रिश्ता है
उनके उन ज़ख्मो से
जो मिले हैं
उन्हें
मेरी वफ़ा और तेरे फरेब
के आलिंगन से...
यकीन कर
तुझे तेरी दुनिया में
हँसते पा
वो सदांए बस
मुझे जगती हैं
और सजा देती हैं मुझे
तुझे पहचान न पाने की
हर रोज़, हर दिन, हर घडी...
सुधीर मौर्य
गंज जलालाबाद,
उन्नाव
209869
बहुत वेगवती धारा सा प्रवाह लिए है यह रचना .अर्थ और शब्द की अन्विति बहुत सुन्दर रही .
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