माँ के
बनाये खूंटे की
वेह छाब्री गाए
जो रोज सुबह
अपने खूंटे से खुलते ही
जंगल की आज़ादी भरी
खुली आबोहवा में
चरने और मस्ती करने के बाद
शाम को खूंटे के नजदीक पहुँचते ही
माँ को देखकर
ज़ोर ज़ोर से
राढ़ाया करती थी
फिर माँ को
पैरों से घुटने तक
सूंघकर
अपने का अहसास करके
अपनी गर्दन कृतज्ञता में
झुका दिया करती थी
जो अपनों के संसार को पाकर
कितनी आज़ाद थी
मगर गलोब्लिजेशन और उपभोक्तावाद
ने तो आज
माँ की उस
संवेदनशील गाए को
असंवेदनशील सर्ढ़को पर
खुला घूमने के लिए
बिलकुल आज़ाद छोड़ दिया है
क्योंकि आज़ादी की
यह नयी परिभाषा
सब पर लागू होती है न
क्योंकि यह गलोब्लिजेशन का दौर जो है
सरक नापती
दर दर भटकती
वह गाए
जो कभी माँ की चहेती
हुआ करती थी
आज अपने खूंटे को
तलाश रही है
और तलाश रही है
उस माँ को
जिसको घुटने तक सूंघते ही
वह आनंद भरी
नींद में सो जाया करती थी
क्या तुम उस गाए को
खूंटे पर बाँधने का
कष्ट करके
अपनी माँ के दूध से
उरिण नहीं होओगे !
--अश्विनी रमेश
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अपने खूंटे को तलाशती गाए
Posted by Ashwini Ramesh
Posted on रविवार, दिसंबर 26, 2010
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