माँ की
बचपन से
सुनाये जाने वाली
लोकोक्तियों को
कम्पिउतर की आर्काइव में नहीं
अपने दिल में
सहेज कर रख लूँ
सोचता हूँ --
माँ से
बचपन से सुने जाने वाली
इन अनेको लोकोक्तियों
जैसे:
''बुरी नी हान्दनी, दुरी हान्दनी"
के अर्थ कहीं
उपभोक्तावाद की स्याही में
रंगकर ना रह जाएँ
और सोचता हूँ--
अपनी अगली पीढ़ी को
इन लोकोक्तियों के अर्थ
क्या में समझा पाउँगा
और फिर सोचता हूँ--
परेम्चंद की तरह
माँ की जी हुईं
इन लोकोक्तियों के अर्थ
कहीं उपभोक्तावाद की
बदली हुई परिभाषाओं
में ना बदल जाएँ
लेकिन सोचता हूँ--
ये माँ की जी हुई
लोकोक्तियाँ कोई
नकली मोती तो है नहीं
जो उपभोक्तावाद के
अन्ध्सागर में खोकर रह जाएँ.
--अश्विनी रमेश
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