फ़ौजी! तुम ज़िदाबाद, तुम्हें सलाम...
वो घड़ी सचमुच दिल को मुसर्रत व आत्मा को सकून देने वाली थी जब भारत की सर्वोच्च अदालत ने जम्मू-कश्मीर पुलिस द्वारा हाल में हुई शोपियां गोलीबारी के मामले में 10 गढ़वाल राइफल्स के मेजर आदित्य कुमार के खिलाफ दायर प्राथमिकी पर रोक लगा दी। यद्यपि यह देखना दिलचस्प होगा कि इस मामले में केंद्र और जम्मू-कश्मीर सरकार क्या जवाब देती हैं, परन्तु अदालत का यह आदेश उन लोगों के लिए एक उचित और करारा जवाब है जो भारतीय सैनिकों का अपमान करने का कोई मौका नहीं छोड़ते। मेजर आदित्य के पिता लेफ्टिनेंट कर्नल कर्मवीर सिंह (रिटायर्ड), जिन्होंने कर्गिल युद्ध में हिस्सा लिया था, ने सेना के खिलाफ दायर प्राथमिकी के खिलाफ़ अदालत का दरवाज़ा खटखटा कर एक उचित और प्रशंसनीय कदम उठाया है। उधर सेना अधिकारियों के तीन बेटों ने कश्मीर में सेना के साथ हो रहे बर्ताव को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय मानव आयोग में शिकायत दर्ज़ कर ये सवाल उठाया है कि कश्मीर घाटी में सेना के सम्मान और मानवाधिकारों की सुरक्षा के लिए सरकारें क्या कर रहीं हैं। एक सच्चा देशवासी इन बेटों के दर्द को महसूस कर सकता है और उनके इस कदम की प्रशंसा कर रहा है। ये इस बात का द्योतक है कि भारतीय सैनिकों की सहिष्णुता की आड़ में पाकिस्तान परस्त और भारत विरोधी ताकतें उनका उत्पीड़न नहीं कर सकती। साथ ही ये मानव अधिकार का डंका पीट कर पत्थरबाज़ों की पैरवी करने वालों के मुंह पर एक ज़ोर का तमाचा है। जिन सैनिकों की बदौलत देशवासियों को सुरक्षा और अमनोचैन की ज़िंदगी मयस्सर होती है, उनके विरुद्ध प्राथमिकि दर्ज़ कर उनके मनोबल को नहीं गिराया जाता, बल्कि उनकी वतन परस्ती के ज़ज़्बे के आगे सिर झुकाया जाता है।
हम चैन की नींद इसलिए सो पाते हैं क्योंकि सीमा पर वहां वो सैनिक खड़ा है। हम इसलिए सुरक्षित हैं क्योंकि वह सैनिक दुश्मन के आ रहे गोलों के सामने चट्टान बन कर ढाल की तरह खड़ा है। पूस की कड़कड़ाती ठंड हो या जेठ की झुलसा देने वाला ताप, वो सैनिक वहां मुस्तैद खड़ा है। सियासी चालबाज़ों को पत्थरबाज़ों के लिए तो दया उमड़ आती है, पर क्या सैनिक इंसान नहीं? क्या उन्हें आत्मरक्षा का भी अधिकार नहीं? हम इसलिए अपने परिवार के साथ आनंदमय और सुखी जीवन का उपभोग कर रहे हैं क्योंकि कोई अपने परिवार, अपनी पत्नी, अपने बच्चों, अपने भाई- बहिन, अपने मां-बाप को छोड़ कर सीमा पर तैनात है। हम इसलिए अपनी छुट्टियों व त्यौहारों की खुशियां मना पाते हैं, क्योंकि वहां देश का वो जवान खड़ा है, जिसके लिए कई बार छुट्टियां भी नसीब नहीं होती और मिलती है, तो कोई पता नहीं कब सीमा पर से बुलावा आ जाए। वह फ़ौजी शिकायत भी नहीं करता। वो तो देश के लिए शहीद होने के लिए तैयार रहता है। वह सिर नहीं झुकाता, बल्कि सिर कटाने के लिए तैयार रहता है और कहता है:
मुझे तोड़ लेना वनमाली उस पथ पर देना तुम फेंक
मातृभूमि पर शीष चढ़ाने जिस पथ जाए वीर अनेक
ज़रा अंदाज़ा लगाइए घाटी के उस विरोधपूर्ण और तनाव भरे वातावरण व परिस्थितियों की, जिनमें हमारा फ़ौजी काम कर रहा है। ये स्थिति सचमुच किसी भीषण आपदा से कम तो नहीं है। कश्मीर घाटी में एक ओर तो सैनिक पाकिस्तान से आ रहे गोलों का सामना करते हैं और दूसरी ओर उसके द्वारा भेजे गए आतंकवादियों से लोहा लेते हैं। उस पर ये 'पाकिस्तान ज़िंदाबाद' व 'हिंदोस्तान मुर्दाबाद' का नारा लगानेवाले पत्थरबाज़ और सियासी चालबाज़। इन पत्थरबाज़ों में महिलाएं और बच्चे भी शामिल हो जाते हैं। हद तो तब हो जाती है जब सियासी गलियारों से से भी 'पाकिस्तान ज़िंदाबाद' का नारा गूंज उठता उठाता है। दरअसल ये आवाज़ उन लोगों की है जो नमक तो भारत का खाते हैं, परन्तु उनके दिल में सहानुभूति पाकिस्तान के लिए हैं। ऐसी अलगाववादी व हिंदोस्तान विरोधी सोच रखने वालों के लिए अफ़जल गुरू, कसाव, बुराहन अवानी जैसे लोग शहीद ही होंगे हैं और वे मानव अधिकार की आड़ में ऐसे लोगों को बचाने का भरसक प्रयास करते रहेंगे।
पत्थरबाज़ों और आतंकवादियों के लिए मानवाधिकारों की बात करने वालो! उन सैनिकों के भी के भी मानवाधिकार है जिनकी गाड़ियों को तोड़ने के लिए तुम आमादा हो जाते हो, घेर कर जिनकी जान लेने पर तुम उतारू हो जाते हो। ऐसी स्थिती में क्या सैनिक अपनी सुरक्षा भी न करे? अगर पत्थरबाज़ों को आम माफ़ी दे कर छोड़ दिया जाए और अपनी रक्षा में हथियार उठाने पर सैनिक के विरुद्ध प्राथमिकि दायर की जाए, तो घाटी के ऐसे शासन और प्रशासन पर शक और भी पुख्ता हो जाता है।
मैं ये तो नहीं कह रहा हूं की सैनिकों को हर किसी पर गोलियां चलाने का अधिकार है, परन्तु अपनी रक्षा करने का स्वत्व तो भगवान ने हर किसी इंसान को दिया है और संविधान भी इसे मौलिक अधिकार के रुप में हमारे देश के नागरिक को देता है और हमारा फौजी भी ऐसा ही नागरिक है। देश की रक्षा का कर्तव्य निभाते हुए उसे आत्मरक्षा का पूरा हक है। आखिर बर्दाश्त की हद होती है। विभिन्न न्यूज चैनल्ज़ पर वीडियो में साफ देखा जा सक्ता है किस तरह से अलगाववादी सैनिकों को लात-घूंसे मारते है, उनसे छीना झपटी की जाती है और उनकी टोपी तक उछाली जाती है। फिर भी सैनिक सहन करते हैं। फिर पत्थरबाज़ उन पर पत्थरों की बरसात करने लग जाते हैं। ये सब देख कर आम देशवासी का तो खून कौलने लगता है, तो आखिर सैनिक कब तक खामोश रहे और क्यों? पाक परस्त पत्थरबाजों व उनके चालबाज सियासी आकाओं को समझ लेना चाहिए कि उनके नापाक मनसूबे कभी पूरे नहीं होंगे।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की पंक्तियां याद आ रही है:
छीनता हो स्वत्व कोई, और तू त्याग-तप से काम ले यह पाप है
पुण्य है विछिन्न कर देना उसे बढ़ रहा तेरी तरफ जो हाथ है
देश के हर फौजी से सच्चा देशवासी कह रहा है – फौजी! तुम्हारे कारण ये देश जिंदाबाद है । इसलिए तुम्हें सलाम!
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