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चन्द सांसें सकून की

कुछ लम्हे ठहर, रहम कर मुझ पर,
मत पुकार यूं मुझे बार-बार !
लेने दे मुझे चन्द सांसें सकून की,
जीने दे कुछ पल मुझे भी अपने !
उम्र भर भटकता रहा हूं यूं ही
मैं क्षितिज पर अनन्त !

न मंजिल, न जहां कोई मेरा अपना,
लड़खड़ाता, टूटता-जुड़्ता, फिसल कर संभलता,
समेटता खुद को, ज़ज़बातों को छुपाता,
असूलों को जीता, भटकता रहा हूं यूं ही
मैं क्षितिज पर अनन्त !

बस, अब बस ! थोड़ी देर ठहर !
लेने दे मुझे चन्द सांसें सकून की !

फिर आऊंगा मैं लौट कर रहा मेरा वादा !
ठहरना चाहता हूं, रुकना नहीं !
ताकि भर सकूं खुद में फ़िर से शक्ति अपार,
विश्वास अगाध, और लड़ सकूं तुझ से !
बस इसलिए, लेने दे मुझे चन्द सांसें सकून की !

1 comments:

  1. “वास्तव” को परिभाष्ति करने की कला कोई आपसे सीखे - “जांपनाह, तुसी ग्रेट - हो तोहफा कबूल करो”

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