महाराष्ट्र के प्रख्यात संत गाड़गे महाराज सेवा कार्य के लिए सदैव तत्पर रहा करते थे। अपने शिष्यों से वह अकसर कहा करते थे कि तीर्थयात्रा का असली पुण्य उन्हें लगता है, जो तीर्थस्थलों की गंदगी दूर करते हैं। तीर्थयात्रियों की सेवा करते हैं। गाड़गे महाराज किसी तीर्थस्थल में पहुंचते, तो वहां झाड़ू से स्वयं सफाई करने लगते। मंदिरों की सीढ़ियां साफ करने में उन्हें अत्यंत संतोष मिलता था। वर्ष 1907 की बात है। गाड़गे महाराज अमरावती के समीप ऋणमोचन तीर्थ में लगने वाले मेले में पहुंचे। उन्होंने नदी के किनारे पड़े पत्तलों व अन्य कूड़े को झाड़ू से हटाकर एक ओर कर दिया। नदी के किनारे एक स्थान पर एकत्रित गंदे जल को अपने साथियों के साथ उलीचकर बाहर निकाला और
जमीन खोदकर नदी की धारा वहां तक पहुंचाई। अचानक गाड़गे जी की मां भी स्नान के लिए वहां आ पहुंचीं। उन्होंने पुत्र को सफाई करते देखा, तो बोलीं, ‘यह काम तो सफाईकर्मी का होता है। तुम क्यों कर रहे हो?’ गाड़गे ने विनयपूर्वक कहा, ‘मां, श्रद्धालुओं की सेवा व पवित्र तीर्थ की सफाई भी भगवान की पूजा-उपासना ही है। मानव भगवान का ही तो रूप है।’ बेटे के श्रद्धा भरे वचन सुनकर मां गद्गद् हो उठी। गाड़गे महाराज ने गांव-गांव पहुंचकर लोगों को मांस-मदिरा का उपयोग न करने तथा सफाई रखने का संकल्प दिलाया।
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सेवा-सफाई
Posted by मानसी
Posted on शनिवार, मई 15, 2010
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