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अँधियारा सवेरा

उजली चादर ओढ़
निकला नया सवेरा ;
पर अधखुली इन आँखों से
छटा नहीं था अभी अँधेरा ;
थोड़ी सी थी नमी
छाया था अभी कोहरा !

ये सुबह बीत कर
दोपहर में बदल गई ;
हज़ार कोशिशे नाकाम रही
अँधेरा लिपटा था मुझसे अभी ;
दिन भी बीत गया ऐसे
इसी कशमकश में शाम गई !

रात ने आकर अब
चान्दनी की आस लगाई ;
रेगिस्तान की तपती रेत की तरह
उसे मिलेगी ठंडक ये ठाठ बंधाई ;
पर अमावस्या की रात को
चाँद कहाँ निकलता है ;
बस अँधेरा ही अँधेरा
सबको समेटे चलता है !

रात तो आखिर रात ठहरी
सुबह का फिर इंतज़ार हुआ ;
 पर आज का सवेरा भी
वैसा ही अँधियारा हुआ ;
अधखुली इन आँखों को
उजाले का न दीदार हुआ !

इसी कशमकश --२
दिन बीत कर रातों में बदले
महीनों के क्षण सालों में बदले
पर न बदला तो वो सवेरा
       अँधियारा सवेरा
               अँधियारा सवेरा !!
                                                            सुमन 'मीत'

2 comments:

  1. रात तो आखिर रात ठहरी
    सुबह का फिर इंतज़ार हुआ ;
    यह सुबह का इंतजार ही तो जीजिविषा को बरकरार रखती है
    सुन्दर रचना

    जवाब देंहटाएं

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