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“प्रकृति के रंग”

शाम ढल आई
मेघ की गहराई
नीर बन आई
आसमा की तन्हाई
न किसे भी नज़र आई ;


रातभर ऐसे बरसे मेघ
सींचा हर कोना व खेत
न जाना कोई ये भेद
किसने खेला है ये खेल ;


प्रभात में खिला उजला रूप
धुंध से निकली किरणों मे धूप
खेत में महका बसंत भरपूर
अम्बर आसमानी दिखा मगरूर ;


पंछियों से उड़े मतवाले पतंग
डोर को थामे मन मस्त मलंग
मुग्ध हूँ देख “प्रकृति के रंग”
कैसे भीगी रात की तरंग
ले आई है रश्मि की उमंग !!


........................................
     सुमन 'मीत'

2 comments:

  1. बहुत सुन्दर रचना, ऐसे समय में जब प्रकृति बहुत कम कविताओं में नज़र आती है!

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