उजली चादर ओढ़
निकला नया सवेरा ;
पर अधखुली इन आँखों से
छटा नहीं था अभी अँधेरा ;
थोड़ी सी थी नमी
छाया था अभी कोहरा !
ये सुबह बीत कर
दोपहर में बदल गई ;
हज़ार कोशिशे नाकाम रही
अँधेरा लिपटा था मुझसे अभी ;
दिन भी बीत गया ऐसे
इसी कशमकश में शाम गई !
रात ने आकर अब
चान्दनी की आस लगाई ;
रेगिस्तान की तपती रेत की तरह
उसे मिलेगी ठंडक ये ठाठ बंधाई ;
पर अमावस्या की रात को
चाँद कहाँ निकलता है ;
बस अँधेरा ही अँधेरा
सबको समेटे चलता है !
रात तो आखिर रात ठहरी
सुबह का फिर इंतज़ार हुआ ;
पर आज का सवेरा भी
वैसा ही अँधियारा हुआ ;
अधखुली इन आँखों को
उजाले का न दीदार हुआ !
इसी कशमकश --२
दिन बीत कर रातों में बदले
महीनों के क्षण सालों में बदले
पर न बदला तो वो सवेरा
अँधियारा सवेरा
अँधियारा सवेरा !!
सुमन 'मीत'
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अँधियारा सवेरा
Posted by सु-मन (Suman Kapoor)
Posted on शुक्रवार, जुलाई 16, 2010
with 2 comments
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2 comments:
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खूबसूरती से लिखा है....
जवाब देंहटाएंरात तो आखिर रात ठहरी
जवाब देंहटाएंसुबह का फिर इंतज़ार हुआ ;
यह सुबह का इंतजार ही तो जीजिविषा को बरकरार रखती है
सुन्दर रचना