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Posted by दीपक कुल्लुवी की कलम से
Posted on मंगलवार, दिसंबर 27, 2011
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अंतिम क्षण
अंतिम क्षण मेरे जीवन के
कितने सुहाने होंगे
कोई न होगा साथ हमारे
हम तन्हा ही होंगे
ऐसा नहीं हम इस दुनियां को
छोड़ के चल देंगे
बज़ूद हमारा मिट नहीं सकता
यहीं कहीं पे रहेंगे
राख़ को मेरी बहा नहीं सकते
चिता पे मुझको जला नहीं सकते
सौंप दिया है जिस्म-ओ-जाँ हमने
चाहकर भी दफना नहीं सकते
अपनें हो य बेगाने
सबको ही याद आऊंगा
आप चाहो न चाहो आपके
दिल में बस जाऊंगा
दिल में बस जा ----
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इस कविता की सत्यता यह है की मैंने अपनी मौत के बाद अपना मृत शरीर एम्स (ऑल इण्डिया इंस्टिट्यूट ऑफ मैडिकल साइंसिस) को दान दे दिया है I तो कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में तो रहूँगा ही I जो मेरे अपनों मेरे चाहने वालों को यह एहसास दिलाता रहेगा की मेरा बज़ूद इस जमीं पर है और रहेगा I
दूसरा बरसों पहले मैंने एक कविता लिखी थी 'मेरी राख़ को दुनियां वालो गंगा में न बहाना,प्रदूषित हो चुकी बहुत और उसे न बढ़ाना ' यह साधना टी0 व़ी0 चैनल के लोकप्रिय प्रोग्राम 'कवियों की चौपाल' में भी प्रसारित हुई थी और 'जर्नलिस्ट टुडे नेटवर्क' पर यह मेरी पहली कविता छपी थी I इसपर कई लोगों,आलोचकों नें उंगली उठाई थी,आपत्ति की थी कि डायलाग तो सारे ही मार लेते हैं कोई करके तो दिखाए I अब कोई यह नहीं कह सकता की कवि झूठ लिखते हैं I
दीपक शर्मा कुल्लुवी
27 /12 /2011 .
9350078399
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