वह वर्ष 2003 का संभवत: अगस्त या सितंबर महीने के कोई शनिवार का दिन था । लखनऊ का दिल कहा जाने वाला हजरतगंज चौक से मैं मिनी बस से गोमती नगर को घर के लिए जा रहा था । मिनी बस खचाखचा भरी हुई थी। बस में जो थोडी सी सीटें थी, वे सब क्षमता से भी अधिक भरी हुई थी । अधिकतर सवारियां खड़ी थीं । चलती, रूकती बस हजरतगंज से गोमती नगर के हुसैडिया चौराह तक पहुंचते - पहुंचते आधा घंटे से अधिक का समय ले लेती है । हां तो, बस में अधिकतर सवारियां खड़ी थी । वैसे तो कहीं भी कोई किसी की बातों पर ध्यान नहीं देता है । बस हो या ट्रेन, हर कोई अपने काम से काम रखता है। विशेषकर लोकल ट्रेन, बस अथवा कम दूरी की सवारियां । लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हें जो दुनिया जहान को भुला कर अपने में ही व्यस्त और मस्त रहते हैं बस में सभी सवारियां खामोश बैठी हुई थी । परन्तु लोगों का ध्यान उस ओर खिंच गया था जहां दो युवक खड़े - खडे आपस में बातें कर रह थे । दोनों ऊंचे कद काठी के, सुदर्शन और युवा थे । उन का पहरावा भी अच्छा था, यानी वे दोनों आधुनिक वेशभूषा में थे । उन की आपस में बातें पहले तो धीरे -धीरे लेकिन फिर उन की वार्तालाप जैसे -जैसे आगे बढ़ रही थी, उन की बातों की आवाज बढ़ती हुई सभी को सुनाई देने लगी थी । सब लोग खामोशी से उन की बातों को ध्यान से सुनने लगे थे और एक दूसरे की आंखों ही आंखों में देखने लगे थे । दोनों युवक आपसी बातचीत में इतने तल्लीन थे जैसे बस में दोनों के अतिरिक्त कोई न हो । लेकिन लोगों की उत्सुकता और जिज्ञासा बढ़ती ही जा रही थी । क्योंकि वे दोनों जिस भाषा में बातें कर रहे थे, स्वाभाविक है सभी को जिज्ञासा होनी ही थी ! और, जिज्ञासा हो ही रही थी । दरअसल, वे दोनों एक ऐसी भाषा में बातें कर रहे थे जो आजकल प्राय: कहीं सुनाई नहीं देती है । प्रचलन से लगभग लुप्त हो चुकी है । लेकिन आम भारतीय को जिस पर गर्व है । जिसे लोग देश की पहचान, देश की संस्कृति, देश की धरोहर कहते हैं । पर व्यवहार में कोई उस भषा का प्रयोग नहीं करता है । अर्थात , वे दोनों युवक संस्कृत में बातें कर रहे थे । इसीलिए सभी उत्सुकता और जिज्ञासा से उन दोनों की बातें सुन रहे थे । इसी जिज्ञासावश मैं अपने को रोक नहीं सका और पूछ ही लिया, क्या आप दोनों संस्कृत के अध्यापक या प्राध्यापक हैं ? किसी कालेज या यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं ? क्योंकि दोनों की अवस्था 25 -26 वर्ष की लग रही थी । कपडे भी अच्छे और सलीके से पहने हुए थे । मेरे पूछने पर दोनों ने लगभग एक साथ जवाब दिया, नहीं हम पढ़ाते नहीं । अध्यापक या प्राध्यापक भी नहीं हैं । हम तो केवल विद्यार्थी हैं । संस्कृत भाषा के स्टुडेंट । ये लखनऊ विश्वविद्यालय से पी एच डी कर रहे हैं । और, मैं हिमाचल यूनिवर्सिटी शिमला से संस्कृत पर शोध कर रहा हूं । विश्वविद्यालयों द्वारा स्टुडेंटस में आपसी संपर्क स्थापित करने के प्रयोजन से मैं शिमला से यहां आया हूं । अभी इन के घर गोमती नगर जा रहे हैं। उन्होंने एक ही सांस में अपना परिचय दे दिया था। बस में बैठे सभी लोग जैसे गर्व से भर उठे थे । और मै सोच रहा था कि आज लोग अपनी भाषा को छोड़ कर केवल अंग्रेजी में अपना पांडित्य प्रदर्शित करते हैं । अपने को विद्वान समझते हैं । ऐसे में इन जैसे युवा पीढ़ी यदि अपनी भाषा अथवा भारत की थाती संस्कृत भाषा को प्रयोग करे तो हमें भाषा के लिए विदेशियों की नजरों में नहीं गिरना पडेगा । बस भागी जा रही थी । वे दोनों युवक आपसी बातचीत में दोबारा व्यस्त हो गए थे । लेकिन लोगों को सोचने के लिए एक विषय दे दिया था । अपने भीतर के स्वयं को लोग देखने का प्रयास करेंगे ही, बेशक थोड़े समय, थोड़े दिनों के लिए ही सही ।
o शेर सिंह के. के.- 100 ,
कविनगर, गाजियाबाद -201 001
E–Mail: shersingh52@gmail.com
मेरी यह रचना अब तक विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं एवं जाल पत्रिकाओं में छप चुकी है । हिमधारा में शामिल करने केलिए धन्यवाद ।
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