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Sushil Bhimta

बस यूं ही जीवन सफर पर चलते चलते, उम्र के एक पड़ाव की शाम ढलते-ढ़लते।
बचपन की यादों के दिल में मचलते-मचचलते, वक्त के जख्मों को भरते-भरते…बचपन के चार दिवारी में पलते-पलते!–आंसूओं का सैलाब पथराई आँखों से निकलते-निकलते–बस यूं ही जीवन सफर पर चलते-चलते!

गिरवी बचपन— क्यों ना चंद लम्हें उस बचपन के याद करलें जो बर्फ में तसलें में फिसलता और ठंड से ठिठुरता हाथ पर गर्म सांसे फुंकता था कभी। वो गांव की बर्फ की सफेद चादर से ढकी जमीं तो आज भी नजर आती है मगर गाँव की गलियों में खेलता वो बचपन आज शहर के पारकों, प्ले स्कूलों के दिखावे में खोकर बंदिशों में घुटकर दम तोड़नें लगा और गांव की गलियां चौबारे, नुक्कड़ वीरान छोड़नें लगा।

आधुनकिता ने गांव की माटी से रिश्ता तोड़ दिया। वो आजादी की उड़ान भरनें वाला नन्हा सा लाड़ प्यार-दुलार से भरा बचपन चार दिवारी में तन्हा छोड़ दिया। वक्त के साथ बदले हालात के हाथों तन्हाई में और चारपाई पर मोबाइल पर बचपन के अनमोल पल खोता और बचपन की दोस्ती की मस्ती खोता नजर आता है।

वो गुड़ की ढली और मक्की की रोटी की जगह पिजा, बर्गर, पेटीज खाता बीमारियों को बुलाता वो मासूम बचपन हर जगह नजर आता है। स्वाद ने स्वास्थ्य ले लिया और दिखावे नें ज़िदगी से किनारा कर लिया। शिक्षा सिर्फ अंग्रेजों से भिक्षा बनकर रह गई। ज्ञान अब अंग्रेजी है और विद्वान हिन्दोस्तानी बनें अंग्रेज। जिन्हें 79-89, 94 और 95 का पता नहीं, आज रामायण महाभारत, वैद-शास्त्रों को कोई पड़ता नहीं उन्हें अपने संस्कारों का पता चलता नहीं।

आज छाये फिल्म जगत के कपूर और खान हैं जो परदों पर निकाल रहे संस्कारों और भारतीयता की जान हैं धर्म के ठेकेदार बने आसाराम और राम रहीम जैसे जो अपने ढाबों में निकाल रहे आस्था के नाम पर आवाम की जान हैं। हरम बनाकर जी रहे धर्म स्थलों को, राजनीति और धर्म गुरु बनकर ली आड़ में हुए बेलगाम हैं। 11–12साल की उम्र में ही बेटियों की लूटते आबरू और जाती मासूमों की जान है। दौलत नें बचपन खरीद लिया, प्ले स्कूलों, करचों का साया डालकर और माता-पिता का माल देखकर! धुँधला गई माया जाल के फैले जाल से माँ-बाप की आंखें और बचपन बेचकर दिखावे की चादर खरीद लाये जिसमें बाहर से चमक तो बहुत है पर ओढ़ने पर सकूँ नहीं मिलता। बचपन पराये हाथों में पलता है जो अपनेपन को छलता है जिसका असर आज माँ बाप से और सामाजिक रिश्तों में आई दूरियों में झलकता है। बस बचपन की माँ -पिता रिश्ते-नातों की इसी अनमोल सीख की कमीं से युवा रिश्तों की दुनियाँ को छोड़ आज के दौर में थोड़ा बेदर्द दिखता है।

दौलत कमाना कोई गुनाह नहीं लाजमी है जीनें के लिए। मगर उसके सरूर में अपने घर के चिराग को जिसने चलना फिरना अभी सीखा ही होता है उसको अंग्रेजी संस्कार ही कहूँगा कि शिक्षा देने वालों के सुपुर्द कर देना मतलब बेदर्द और बेपरवाह बना देना है।

इस हालत में बड़ा हुआ बचपन फिर देश में नहीं विदेश में रुकता है और माता-पिता की आँखों में तब सिर्फ आंसुओं का सैलाब और वृद्धाश्रमों का द्वार दिखता है जहां फिर बुढापा सिसकता और गैरों से जबरदस्ती लिपटता दिखता है।

अंगेजी सिर्फ एक भाषा है जो सिर्फ माध्यम है विचारों के आदान प्रदान का, हमारे धर्म ग्रन्थ-कथा, कहानियां, पूजा-पाठ, रीति-रिवाज, वेशभूषा हमारी पहचान है। इन्हें बढ़ावा तभी मिल सकता है जब इन्हें कहीं ना कहीं हमारे पाठयक्रम और सामाजिक जीवन में आवश्यक तौर पर अपनाया और लाया जाए। आज भी हमें अंग्रेजी और अंग्रेजों ने मानसिक गुलाम बना रखा है और घर को शमशान बना रखा है जहां रोज संस्कारों व्यवहारों की अर्थी जलाई और दफनाई जाती है।

आसुंओ का सैलाब हर घर की दहलीज से निकलकर गाँव, शहर की गलियों से गुजरकर देश में अराजकता का समुंदर बनकर देश डूबने लगा है। जो सबको दिखता है पर फिर भी बचपन दिखावे के हाथों बिकता है। दौलत का जनून दिखता है। बचपन के बगैर हर घर वीरान दिखता है। धार्मिक शिक्षा ग्रन्थों को प्राण दो बचपन को नई पहचान दो, घर के वीरानों को बचपन की किलकारियों से जान दो!….होड़ है, दौड़ है, कोढ़ है, ये दिखावा एक भयानक मोड़ है!

अंत में एक गुजारिश करना चाहूंगा देश की सरकार और राज्यों की सभी सरकारों के कर्णधारों से की अंग्रेजी माध्यम ठीक है मगर उसके साथ-साथ हमारे संस्कारों, व्यवहारों को शिक्षा पाठयक्रम में लाना भी जरूरी है। हम सब सामाजिक प्राणियों का भी उतना ही उत्तरदायित्व है जितना कर्णधारों का, कि हम अपने बच्चों को अपने रीति-रिवाजों और भारतीय परिधानों, आचरण-व्यवहारों से जोड़े रखें। वर्ना बचपन विदेश में युवा बनकर आबाद होगा और भारत यूँ ही बर्बाद होगा और हमारे बुढापे का ये कडुवा स्वाद होगा।

बचपन को प्ले स्कूलों, कर्च, मोबाईल आदि में मत फसाइये उसे समय दीजिये ये कच्ची मिटटी के खिलौने हैं टूट जातें हैं इन्हें गैर हाथों में इतनी जल्दी मत सौंपिये। फूल हैं इन्हें माँ बाप रिश्ते नातों और अपने अपने समाज की बगिया में खिलने दीजिये। इनकी नाजुक उंगलियों को पकड़ कर एक उम्र तक इन्हें चलना सिखायें। फिर जहां चाहो वहां छोड़ जायें । तब ये घर समाज, देश हर जगह महकेंगे, बहकेंगे नही।

लेखक स्वतंत्र विचारक हैं तथा हिमाचल प्रदेश में रहते हैं।

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