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स्वप्निल राह

जीवन की राहों में कई बार कदम कुछ ऐसी राह पकड़ लेते हैं जिसकी कोई मंजिल नहीं होती या यूं कहो कि मंजिल सपना बन जाती है और वो राह स्वप्निल ।





स्वप्निल राह




जीवन की सच्चाई से
अनभिज्ञ वो

बढ़ती जा रही थी

स्वप्निल रास्तों के गांव

लेकर विचारों की छांव

कदम पर आई ठोकर को

विश्वास के पत्ते से सहलाती

बस बढ़ती जा रही थी

बेखौफ वो जज़्बाती

मंजिल से दूरी

लगती अब कम थी

आँखें भी खुशी से

हो गई नम थी

पर.....

एक पल में मानो

सब कुछ बिखर गया

तिनका-तिनका कर घरौंदा

अब तो टूट गया

उसकी ये राह

सिर्फ स्वप्निल थी

जीवन की सच्चाई नहीं

मन की भटकन थी

ये जानती है वो

ये जानती है वो

कि स्वप्निल राहों की

दिशाएं नहीं होती

गर न होता

ये नाजुक मन

न होते अरमान

न ही आशाएं होती

न होते अरमान

न ही आशाएं होती ...............



                                                                                              सुमन ‘मीत’

1 comments:

  1. ये जानती है वो

    कि स्वप्निल राहों की

    दिशाएं नहीं होती
    बिलकुल सही कहा। बहुत अच्छी लगी रचना। बधाई।

    जवाब देंहटाएं

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