पहाड़ की खामोशी
पहाड़ पर आए छोटे बच्चे ने
पूछा मुझसे, अंकल
यहां इतनी खामोशी क्यों है?
सब कुछ तो है
गाड़ियां भी, लोग भी
मैं भी और आप भी।
मैंने मुस्कराकर उसे गोद में उठाया
उसके गालों को चूमा
चाहता तो मैं भी कह सकता था
बड़े होओगे ते अपने आप
समझ जाओगे
अभी तुम बहुत छोटे हो।
पर मैं सदियों की
यह गलती दुहराना नहीं चाहता था
आज के बच्चे वैसे भी
बहुत समझदार हैं हमसे
हम चाहे जिस भाषामें समझाएं
वे अपनी भाषा में समझ लेते हैं।
मैंने उसे बताया
जो मैंने पचास साल की उम्र में
अभी-अभी जाना है
तेलुगु के एक कवि गुटरु शेषेUnz शekZ से
कि मनुष्यों के बाजार से
खदेड़ दिए जाने पर
खामोशी पहाड़ों में भाग आती है।
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कविता: पहाड़ की खामोशी
Posted by रतन चंद 'रत्नेश'
Posted on रविवार, मई 23, 2010
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