अकसर देखा करती हूँ
शाम ढलते-2
पंछियों का झुंड
सिमट आता है
एक नपे तुले क्षितिज में
उड़ते हैं जो
दिनभर
खुले आसमां में
अपनी अलबेली उड़ान
पर....
शाम की इस बेला में
साथी का सानिध्य
पंखों की चंचलता
उनकी स्वर लहरी
प्रतीत होती
एक पर्व सी
उनके चुहलपन से बनती
कुछ आकृतियां
और
दिखने लगता
मनभावन चलचित्र
फिर शनै: शनै:
ढल जाता
शाम का यौवन
उभर आते हैं
खाली गगन में
कुछ काले डोरे
छिप जाते पंछी
रात के आगोश में
उनकी मद्धम सी ध्वनि
कर्ण को स्पर्श करती
निकल जाती है
दूर कहीं..................!!
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ढलती शाम
Posted by सु-मन (Suman Kapoor)
Posted on बुधवार, सितंबर 22, 2010
with 1 comment
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1 comments:
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मन की कशमकश ,प्रेम और उदासी को पृकृ्ति के बिम्बों के साथ् बहुत खूबसूरती से लिखा है। दिन के बाद रात और रात के बाद दिन आता है इसी तरह दुख सुख मिलन विछुडन भी चलते रहते हैं। बहुत अच्छी लगी रचना बधाई।
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