रवीन्द्र प्रभात , हिन्दी साहित्य में एक एसे साहित्यकार हैं जिन्होंने साहित्यक ब्लॉगस को बड़ी गंभीरता से लिया और ब्लॉग के मुख्य विश्लेषको के रुप में अपना एक महत्वपूर्ण स्थान बनाया । पर रवीन्द्र जी केवल वेब तक सीमित साहित्यकार नहीं हैं । हाल ही उनका दूसरा उपन्यास “ प्रेम न हाट बिकाय” प्रकाशित हुआ हैं जो प्रेम संबंधो पर आधारित हैं । इससे पहले उनका उपन्यास “ ताकि बचा रहे लोकतन्त्र” भी चर्चित रहा । इससे पहले रवीन्द्र जी के दो ग़ज़ल संग्रह और एक कविता संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं । इन सभी के बीच उनकी लिखी एक खास पुस्तक “ हिन्दी ब्लोगिंग का इतिहास “ जो पिछले वर्ष प्रकाशित हुयी भी एक महत्वपूर्ण पुस्तक हैं जो हिन्दी साहित्य तथा ब्लॉग के जुड़ाव के इतिहास की रोचक कहानी हैं ।
ब्लॉग श्री और ब्लॉग भूषण सम्मानित तथा परिकल्पना वेब पत्रिका के संपादक रवीन्द्र प्रभात से उनके लेखन , उनके “ प्रेम न हाट बिकाय” नए उपन्यास और कई पहलुओ पर isahitya ने उनसे बातचीत की । प्रस्तुत हैं रवीन्द्र प्रभात जी का isahitya द्वारा लिया गया एक खास इंटरव्यू ।
प्रश्न - सबसे पहले आप के शब्दों में आपका परिचय जानना चाहेंगे , उनके लिए जो शायद आपसे परचित नहीं हैं । साहित्य में आप का अब तक का सफ़र कैसा रहा ?
रवीद्र प्रभात - मेरा जन्म आज से साढ़े चार दशक पूर्व 05 अप्रैल को बिहार के सीतामढ़ी जनपद के एक गाँव महिंदवारा मे एक मध्यमवर्गीय ब्राह्मण परिवार में हुआ । मेरा मूल नाम रवीन्द्र कुमार चौबे है । मेरी आरंभिक शिक्षा सीतामढ़ी में हीं हुई। बाद में मैंने बिहार विश्वविद्यालय से भूगोल विषय के साथ विश्वविद्यालयी शिक्षा ग्रहण की। उसके बाद पत्रकारिता और मास कम्यूनिकेशन से स्नातकोत्तर भी किया । जीवन और जीविका के बीच तारतम्य स्थापित करने के क्रम में मैंने अध्यापन का कार्य भी किया, पत्रकारिता भी की, वर्त्तमान में ये एक बड़े व्यावसायिक समूह में प्रशासनिक पद पर कार्यरत हूँ। आजकल लखनऊ में हूँ। लखनऊ में ही स्थायी निवास है अपना ।
विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन के साथ-साथ वर्ष-1991 में 'हमसफ़र'(ग़ज़ल संग्रह), 1995 में 'समकालीन नेपाली साहित्य'( संपादित), 1999 में 'मत रोना रमज़ानी चाचा' (ग़ज़ल संग्रह) प्रकाशित है । प्रारंभिक दिनों में दो पत्रिकाओं क्रमश: 'उर्विजा' और 'फागुनाहट' का संपादन तीन-चार वर्षों तक किया । हिंदी मासिक 'संवाद' तथा 'साहित्यांजलि' का विशेष संपादन से भी जुड़ा । 'ड्वाकरा' की टेली डक्यूमेंटरी फ़िल्म 'नया विहान' के पटकथा लेखन से भी जुड़ा । लगभग दो दर्ज़न सहयोगी संकालनों में रचनाएँ भी संकालित है । वर्ष 2002 में स्मृति शेष ( काव्य संग्रह) कथ्यरूप प्रकाशन इलाहाबाद ने प्रकाशित किया। मैंने लगभग सभी साहित्यिक विधाओं में लेखन किया है परंतु व्यंग्य, कविता और ग़ज़ल लेखन में प्रमुख उपलब्धियाँ रही हैं। मेरे रचनाएँ भारत तथा विदेश से प्रकाशित लगभग सभी प्रमुख हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं तथा कविताएँ कई चर्चित काव्य संकलनों में संकलित की गई हैं। मेरे दो उपन्यास क्रमश: 'ताकि बचा रहे लोकतन्त्र' 2011 में और 'प्रेम न हाट विक़ाए' इसी वर्ष यानि 2012 में हिन्द युग्म प्रकाशन ने प्रकाशित किया है । पहला उपन्यास दलित विमर्श पर होने के कारण काफी चर्चा में रहा। सुप्रसिद्ध आलोचक मुद्राराक्षस जी ने भी उस उपन्यास को काफी सराहा और विमर्श का रूप दिया । ताकि बचा रहे लोकतन्त्र के लिए प्रगतिशील ब्लॉग लेखक संघ ने बाबा नागार्जुन जन्मशती कथा सम्मान-२०१२ से मुझे सम्मानित भी किया है ।आजकल मेरा दूसरा उपन्यास प्रेम न हट बिकाय की भी खूब चर्चा है । साहित्य से हटकर मेरी एक पुस्तक " हिन्दी ब्लोगिंग का इतिहास" हिन्दी साहित्य निकेतन बिजनौर ने प्रकाशित किया है साथ ही विगत वर्ष मैंने हिन्दी ब्लोगिंग की पहली मूल्यांकनपरक पुस्तक " हिन्दी ब्लोगिंग: अभिव्यक्ति की नयी क्रान्ति" का संपादन भी किया है । दैनिक जनसंदेश टाइम्स और डेली न्यूज एक्टिविस्ट में प्रकाशित मेरा व्यंग्य स्तंभ चौबे जी की चौपाल भी काफी चर्चा में है आजकल । वर्तमान में मैं हिन्दी ब्लोगिंग और साहित्य के बीच सेतु निर्माण करने वाली पत्रिका वटवृक्ष के संपादन से भी जुड़ा हूँ । प्रश्न – आपका नए उपन्यास ‘प्रेम ना हाट बिकाय’ जो हाल में हिन्दी युग्म प्रकाशन से प्रकाशित हुआ हैं , इसके बारे में आपसे जानना चाहेंगे ? रवीद्र प्रभात - नामानुरूप यह उपन्यास प्रेम की धुरी पर स्थापित दो समांतर प्रेम वृतों की रचना करता है, जिसके एक वृत का केंद्र प्रशांत और स्वाती का प्रेम-प्रसंग है तो दूसरे वृत की धुरी है देव और नगीना का प्रेम । एक की परिधि सेठ बनवारी लाल और उनकी पत्नी भुलनी देवी है तो दूसरे की परिधि देव की माँ राधा । इन्हीं पात्रों के आसपास उपन्यास का कथानक अपना ताना वाना बुनता है । पूरी तरह से त्रिकोणीय प्रेम प्रसंग पर आधारित है यह उपन्यास । बस सीधे-सीधे आप यह समझें कि विवाह जैसी संस्था की परिधि में उन्मुक्त प्रेम की तलाश है यह उपन्यास । इसमें कथा की सरसता भी आपको मिलेगी और रोचकता भी । मित्रता, त्याग,प्यार और आदर्श के ताने बाने से इस उपन्यास का कथानक रचा गया है जो पाठकों को एक अलग प्रकार की आनंदानुभूति देने में समर्थ है ।
प्रश्न – ‘प्रेम न हाट बिकाय’ के मुख्य पात्रो की बात करे तो इसके मुख्य नायक और नायिका कौन हैं । क्या आपने पात्र किसी निजी अनुभवो या घटनाओ से प्रभावित होकर अपने उपन्यास में उतारे ।
रवीद्र प्रभात - मेरे इस उपन्यास का मुख्य पात्र प्रशांत और स्वाती है जिनके इर्द-गिर्द उपन्यास से जुड़ी समस्त घटनाएँ करवटें लेती है । प्रशांत ग्रामीण परिवेश मे पला एक निम्न माध्यम वर्गीय परिवार से ताल्लुक रखता है जो शादी-शुदा है और स्वाती एक व्यवसायी की पुत्री है जो शहरी परिवेश मे पली बढ़ी है। पूरे उपन्यास मे बनारस की आवोहवा और बनारस की संस्कृति हावी है । मैंने बनारस मे कई बरस गुजारें है इसलिए बनारसी परिवेश को उपन्यास मे उतारने मे मुझे मेरे अनुभवों ने काफी सहयोग किया । जहां तक निजी अनुभवों या घटनाओं से प्रभावित होकर उपन्यास लिखने का प्रश्न है तो ऐसा कुछ भी नहीं है इस उपन्यास के साथ । हाँ इर्द-गिर्द की कुछ शुक्ष्म अनुभूतियाँ है बस ।
प्रश्न - आपकी विवाह उपरांत प्रेम संबंधो पर निजी राय क्या हैं ? क्या आप विवाह उपरांत संबंध को विवादित विषय मानते हैं ? इस उपन्यास के माध्यम से क्या आप कोई विचार लोगो के सामने रखना चाहते थे ?
रवीन्द्र प्रभात - मेरी राय मे यदि विवाह उपरांत आपसी सहमति से प्रेम संबंध बनते हैं तो गलत नहीं है, क्योंकि हर किसी को अपनी पसंद-नापसंद का अधिकार होना ही चाहिए न कि किसी के थोपे हुये संबंध के निर्वहन मे पूरी ज़िंदगी को नीरसता मे धकेल दिया जाया । हो सकता है मेरे विचारों से आप इत्तेफाक न रखें मगर यही सच है और इस सच को गाहे-बगाहे स्वीकार करना ही होगा समाज को, नहीं तो एक पुरुष प्रधान समाज मे स्त्री की मार्मिक अंतर्वेदना के आख्यान का सिलसिला कभी खत्म नहीं होगा, ऐसा मेरा मानना है ।
इस उपन्यास को लिखने की खास वजह यह रही कि प्रेम की स्वतन्त्रता और विवाह जैसी संस्था आदि विवादित विषयों पर नए सिरे से पुन: गंभीर बहस हो ।
प्रश्न - आपके पहले उपन्यास “ ताकि बचा रहे लोकतन्त्र” के बारे भी जानना चाहेंगे ? शीर्षक से एक ज्वलंत विषय पर आधारित प्रतीत होता हैं । इसकी भूमिका और इसके लिखने पीछे आपके विचार जानना चाहेंगे । रवीन्द्र प्रभात - यह एक घटना प्रधान उपन्यास है। उपन्यास का प्रमुख पात्र है झींगना जो दलित वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है । झींगना के चरित्र का विकास चार घटनाओं पर निर्भर है, जो झींगना को झींगना साहब बना देती है। पहली घटना -‘कोटे के हो कभी नही सुधरोगे’। की डांट से नौकरी छोड़कर झींगना द्वारा पुनः मैला ढोने के पारम्परिक कार्य को अपनाना । दूसरी घटना – मुर्दाघर की नौकरी के दौरान नाटक मंडली के मालिक चमनलाल से भेंट और नौकरी छोड़कर कलाकार बनने की झींगना की चेष्टा। तीसरी घटना – बिना टिकट यात्रा के दौरान झींगना की ताहिरा से भेंट और रेडियो, दूरदर्शन और नाटक मंडली का कलाकर बनकर ख्याति और पैसा अर्जित करना। चौथी घटना – इन पैसों से एक सोसाइटी बनाकर गरीबो का उद्धार करते हुये माओवादियों को अहिंसात्मक आंदोलन के रास्ते पर लाने का झींगना का प्रयत्न। इसी के मध्य झींगना और ताहिरा का झीने से आवरण में छुपा एक अनकहा आदर्शवादी प्लूटोनिक प्रेम-प्रसंग अपना प्रस्तार ग्रहण करता है और अन्त में ताहिरा सुरसतिया के मरणोपरान्त उसके बेटे मुन्ना को लेकर लखनऊ लौट आती है। एक मुन्ना में एक नया भविष्य देखती है। यह उपन्यास दलित प्रश्न को सामने लेकर चलता है और समाज को यही संदेश देने का प्रयास करता है कि जबतक समाज मे पूरी तरह समाजवादी व्यवस्था नहीं आती तबतक दलितों में आर्थिक विषमता बनी रहेगी ।
प्रश्न - सामाजिक मुद्दो से जुड़े उपन्यास की सबसे बड़ी चुनौती इसके उपन्यास का अंत होती हैं क्योंकि उस वक़्त लेखक को पाठको को एक विचार के अंतर्गत बांधना होता हैं ताकि उपन्यास की वैधता बनी रहे । आपकी इस पर क्या राय हैं ?
रवीन्द्र प्रभात - यह सही है कि सामाजिक मुद्दों से जुड़े उपन्यास की बड़ी चुनौती है उसका समापन यानि अंत । मैंने भी अपने दोनों उपन्यासों मे इस चुनौती को स्वीकार किया है । अगर विचार नहीं तो उपन्यास का मतलब क्या ?
प्रश्न - लेखन तथा साहित्य में आप को आने की प्रेरणा कैसे मिली? शुरुआत से आपको कौन कौन से साहित्यकारों ने हमेशा से प्रभावित किया ?
रवीन्द्र प्रभात - इस संदर्भ में एक वाकया बताना चाहूँगा । बचपन में दोस्तों के बीच शेरो-शायरी के साथ-साथ तुकबंदी करने का शौक था। इंटर की परीक्षा के दौरान हिन्दी विषय की पूरी तैयारी नहीं थी, उत्तीर्ण होना अनिवार्य था। इसलिए मरता क्या नहीं करता । सोचा क्यों न अपनी तुकवंदी के हुनर को आजमा लिया जाए । फिर क्या था राष्ट्रकवि दिनकर, पन्त आदि कवियों की याद आधी-अधूरी कविताओं में अपनी तुकवंदी मिलाते हुए सारे प्रश्नों के उत्तर दे दिए । जब परिणाम आया तो अन्य सारे विषयों से ज्यादा अंक हिन्दी में प्राप्त हुए थे । फिर क्या था, हिन्दी के प्रति अनुराग बढ़ता गया और धीरे-धीरे यह अनुराग कवि-कर्म में परिवर्तित होता चला गया । गद्य की ओर बहुत बाद में उन्मुख हुआ । वर्ष-1995- 96 में मेरी पहली भोजपुरी कहानी 'रेवाज़' अंजोरिया में प्रकाशित हुयी उसके बाद । लेखन के प्रारंभिक दिनों में आचार्य जानकी बल्लभ शास्त्री जी का भरपूर स्नेह-सान्निध्य प्राप्त हुआ । लेखन में निखार भी उनके बहुमूल्य परामर्श से ही संभव हो सका । उन्होंने महाप्राण निराला को केवल पढ़ने नहीं महसूस करने को कहा । हालांकि मैंने अपने लेखन की शुरुआत गजल से की थी इसलिए मेरी अभिरुचि आचार्य जी के गीतों और गज़लों में ज्यादा थी। उन्हीं दिनों उनका एक गजल संग्रह 'कौन सुने नगमा' भी आया जो मेरी पसंदीदा पुस्तकों में से एक है । प्रमुख ओजकवि पाण्डेय आशुतोष, नवगीतकार हृदेश्वर, श्रीराम दूबे और आलोचक जगदीश बिकल से भी प्रारंभिक दिनों में मेरी बड़ी निकटता रही । दुष्यंत और अदम गोंडवी की गज़लों को पढ़कर गजल लिखना शुरू किया तथा मुक्तिबोध और शमशेर को पढ़कर कविता । प्रेमचंद के साथ-साथ अज्ञेय,रेणु और नागार्जुन के गद्य साहित्य ने मुझे अत्यधिक प्रभावित किया है । मुद्रा जी की भी गद्य रचनाएँ अच्छी लगती है मुझे ।
प्रश्न - आपने साहित्य जीवन की शुरुआत एक गजल संग्रह (हमसफर) के प्रकाशन से की थी फिर आपने एक लंबा अंतराल लेकर एक और गजल संग्रह (मत रोना रमज़ानी चाचा) प्रकाशित की । फिर आपका कविता संग्रह भी आया । आप ग़ज़ल और कविताओ दोनों से जुड़े रहे हैं । हाल ही में इंडिया टुडे मे एक लेख प्रकाशित हुआ ‘शायरी का जश्न और कविता का मातम ’ (लिंक ) । आपका का क्या मानना हैं ? रवीन्द्र प्रभात - यह सच है कि आज हिन्दी कविता का महत्व और स्तर दिन-प्रतिदिन गिरता जा रहा है, पाठकों से दूरी बढ़ती जा रही है। यथास्थिति की प्रस्तुति और उससे उत्पन्न आक्रोश को काव्य के माध्यम से प्रस्तुत करने के पश्चात भी आज कविता सुधी-जनों की उपेक्षा से मर्मान्हत है। हर साल अरबों रुपए का सरकारी बजट हजम करने वाली हिंदी भाषा की कविता के कद्रदान लगभग लापता हो चुके हैं।यह भी सही है कि हिंदी कविता अगर सिलेबस में न पढ़ाई जाए तो उसे पूछने वाले कम ही मिलेंगे। हिंदी कविता की किताबें छपती तो हैं पर बिकती कम और बांटी ज्यादा जाती हैं। सचमुच यह हिन्दी कविता के लिए अमंगलकारी होने का स्पष्ट संकेत है। दूसरी ओर अनेकानेक कवियों का झुकाव ग़ज़लों की ओर हो जाने से कुछ आलोचक दबी जुवान से ही सही, किन्तु ग़ज़ल को काव्य के विकल्प के रुप में देखने लगे हैं । इसप्रकार हिन्दी काव्य जगत में ग़ज़ल का विकास तेजी से हो रहा है और संभावनाएं बढ़ गयी है ।
प्रश्न - आज हिंदी साहित्य से लोगों का जुड़ाव कम होता दिखता है हिंदी भाषी होने के बावजूत लोगों में हिंदी के लिए रुझान कम ही देखने को मिलता है । हमारी युवा पीढ़ी में हिन्दी साहित्य की लोकप्रियता भी कम हैं । आप इसे कैसे देखते हैं ?
रवीन्द्र प्रभात - साहित्य केवल अनुभूति को अभिव्यक्त करने का माध्यम भर नहीं है, बल्कि सभ्यता को संस्कारित करने और संस्कृति को शब्द देने का सशक्त प्रयोग है। भाषा के स्तर पर जब लोककथाओं के क़दम आगे बढ़े तो कहानी दिखाई देने लगी और आधुनिक रूप में स्थापित होने के साथ ही भौगोलिक सीमाओं को तोड़कर चारों ओर अपने छींटे बिखेरती नज़र आने लगी । खेत-खलयानों से गुज़रती जमींदारों के शोषण, साहूकारों के अत्याचार, मज़दूरों के आंसुओं का अहसास दिलाती, गांव-नगर, महानगरों में विचरण करती हुई, पारंपरागत आंगन में टीस, कसक, कुण्ठा-शोषण आदि के धरातल पर सुख-दुख के हमसफ़र किरदारों को जीवंतता प्रदान करने लगी। मगर शहरीकरण पर अचानक बाजारवाद के हस्तक्षेप ने पठनीयता को ऐसा कमजोर किया कि हिन्दी साहित्य की आधारशिला अनायाश ही दरकती चली गयी । शहरों में हिन्दी साहित्य से कम लोगों के जुड़ाव के दो कारण है । एक है बाजारवाद जो लगातार हमारी प्रगतिशील सोच को कमजोर करने की दिशा में काम कर रहा है । इससे शहर की सामाजिकता लगातार खंडित हो रही है और सम्बन्धों में एक अलग प्रकार का विघटन उपस्थित हो रहा है। दूसरा है परंपरागत शैली की खोल से साहित्यकारों के बाहर न निकलने की झिझक । यह झिझक हमें हमारे शहरी पाठकों से दूर करता जा रहा है । शहरों में भाषा को लेकर हमारी युवा पीढ़ी लगातार प्रयोग कर रही है। इधर कुछ दिनों में हिंगलिश का प्रचलन ऐसा हुआ है कि हिन्दी साहित्य शहरों में अपने अस्तित्व को लेकर अत्यधिक सशंकित है ।
प्रश्न - आप के विचार से इस बढ़ते फासले को समेटने के लिए क्या किया जा सकता है ?
रवीन्द्र प्रभात - मेरा मानना है कि हिन्दी साहित्य और उसके साहित्यकार सत्ता के आगे नतशिर होने और पूंछ हिलाने की प्रवृत्ति से पीछा छुड़ायें। हिन्दी भाषा को और सरल रूप देने की दिशा में कार्य करे। हमें तेज़ी से बादल रहे समय, समाज और सरोकार पर भी नज़र रखने की जरूरत है । हिन्दी भाषा व साहित्य , विशेषकर हिन्दी कविता से सरोकार रखने वाले लोगों के बीच इस बात को लेकर गंभीर विमर्श होना चाहिए कि कैसे आज के तकनीकी युग में शहरों-महानगरों में तब्दील होते कस्बे से अपने जुड़ाव को और मजबूत किया जा सके । जनसरोकारों से जुड़ा हुआ साहित्य आज भी हमारी युवा पीढ़ी को आकर्षित करता है, बशर्ते उन्हें बताने के बजाय साहित्य में पिरोकर महसूस कराया जाये ।
प्रश्न - ब्लॉग और आप, बेहद गहरा और मजबूत नाता हैं आप दोनों का । कैसे शुरुआत हुयी इंटरनेट के माध्यम से हिन्दी ब्लॉगिंग की ?
रवीन्द्र प्रभात - मैंने जब ब्लागिंग मे कदम रखा तो मुझे भी नहीं मालूम था कि इसका भविष्य क्या होगा । मुंबई मे मेरे एक मित्र हैं बसंत आर्य आयकर अधिकारी हैं और हास्य-व्यंग्यकार भी । उन्होने एक दिन मुझे जियोसिटीज़ डॉट कौम पर ब्लॉग बनाने की जानकारी दी । इसपर मैंने भी "एक नयी सुबह की ओर" नाम से ब्लॉग बनाया । इस पर सुविधाएं कम थी, हिन्दी टाईपिंग की व्यवस्था नहीं थी इसलिए मजा नहीं आता था । फिर अंतर्जाल पर भ्रमण के दौरान मुझे ब्लॉग स्पॉट डॉट कौम पर ब्लॉग बनाने की जानकारी हुयी । मैंने परिकल्पना नाम से पहला ब्लॉग बनाया । उस समय सौ के आसपास लोग ही थे ब्लोगिंग मे और सक्रिय ब्लॉगर थे दो-तीन दर्जन के आसपास । धीरे-धीरे लोग बढ़ते गए और कारवां बनाता गया । वर्ष- 2007-2008 मे ब्लॉग पर अनेकानेक प्रतिभाशाली लोगों का आगमन हुआ । इससे यह महसूस होने लगा कि आने वाले समय मे निश्चित रूप से हिन्दी साहित्य को ब्लॉग एक नयी दिशा देंगे ।
प्रश्न - आपकी एक पुस्तक ‘हिन्दी ब्लॉगिंग का इतिहास’ पिछले वर्ष प्रकाशित हुई इसके बाद आपने इसी पर आधारित एक और पुस्तक का सम्पादन भी किया । आपकी ये पुस्तक बड़ी विशेष हैं और हिन्दी ब्लॉगस को लेकर एक बेहद रोचक कहानी कहती हैं । हिन्दी ब्लॉगिंग पर पुस्तक लिखने की प्रेरणा कैसे मिली ? रवीन्द्र प्रभात - हमेशा कुछ नया करने की चाहत नए प्रयोग को जन्म दे देती है । वर्ष-2007 के दिसंबर महीने मे मैंने ब्लॉगिंग में एक नया प्रयोग प्रारम्भ किया और ‘ब्लॉग विश्लेषण’ के द्वारा ब्लॉग जगत में बिखरे अनमोल मोतियों से पाठकों को परिचित करने का बीड़ा उठाया। 2007 में पद्यात्मक रूप में प्रारम्भ हुई यह कड़ी 2008 में गद्यात्मक हो चली और 11 खण्डों के रूप में सामने आई। वर्ष 2009 में मैंने इस विश्लेषण को और ज्यादा व्यापक रूप प्रदान किया और विभिन्न प्रकार के वर्गीकरणों के द्वारा 25 खण्डों में एक वर्ष के दौरान लिखे जाने वाले प्रमुख ब्लागों का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया। इसी प्रकार वर्ष 2010 में भी यह अनुष्ठान मैंने पूरी निष्ठा के साथ सम्पन्न किया और 21 कडियों में ब्लॉग जगत की वार्षिक रिपोर्ट को प्रस्तुत करके एक तरह से ब्लॉग इतिहास लेखन का सूत्रपात किया। यही क्रम वर्ष-2011 मे भी चला । इस विश्लेषण को अपार लोकप्रियता प्राप्त हुयी, पूरे ब्लॉग जगत ने मेरे इस कार्य की सराहना की । पाठकों की इसी सराहना ने मुझे हिन्दी ब्लागिंग का इतिहास लिखने के लिए प्रेरित किया। इस पुस्तक मे वे सारी चीजें है जो एक युवा और नवोदित ब्लॉगर के ज्ञानार्जन के लिए आवश्यक है ।
प्रश्न - परिकल्पना ब्लोगोत्सव के बारे में बताइये । इस तरह के पहलकदमी को लेकर साथी साहित्यकारों के शुरुआती प्रतिक्रियाए क्या रही ?
रवीन्द्र प्रभात- ब्लॉग जगत की सकारात्मक प्रवृत्तियों को रेखांकित करने के उद्देश्य से अभी तक जितने भी प्रयास किये गये हैं, मेरे समझ से उनमें ‘ब्लॉगोत्सव’ एक अहम प्रयोग है। अपनी मौलिक सोच के द्वारा मैंने इस आयोजन के माध्यम से पहली बार ब्लॉग जगत के लगभग सभी प्रमुख रचनाकारों को एक मंच पर प्रस्तुत किया और गैर ब्लॉगर रचनाकारों को भी इससे जोड़कर समाज में एक सकारात्मक संदेश देने का प्रयास किया है । जहां तक प्रतिक्रिया का प्रश्न है तो हर नए काम की अच्छी और बुरी दोनों तरह की प्रतिक्रियाएँ होती है । इसके भी हुयी, मगर दाबी जुबान से ही सही बिपरित प्रतिक्रिया देने वालों ने भी यह महसूस अवश्य किया होगा कि एक दिन यह प्रयोग मिल का पत्थर साबित होगा।
प्रश्न - हिन्दी साहित्यक ब्लॉग को लेखर बहुत सारी सकारात्मक चीजे हैं । लेकिन कुछ नकारात्मक बाते भी हैं । कुछ वर्ष पूर्व ब्लॉग ने हिन्दी को एक नयी दिशा दी लेकिन अब समय हैं की हमें हिन्दी को वेब से बाहर भी निकालना चाहिए । कहीं न कहीं हिन्दी साहित्य में पब्लिशिंग अभी भी बहुत धीमी और सीमित दिखती हैं । एसे में अगर हिन्दी साहित्य केवल ब्लॉग तक सीमित रखा जाये तो ये हिन्दी साहित्य के साथ न्याय नहीं होगा । ब्लॉग शायद एक उत्प्रेरक हैं लेकिन एक फ़ाइनल स्टॉप नहीं हैं । आपकी क्या राय हैं ?
रवीन्द्र प्रभात - मैं आपकी बातों से पूर्णत: सहमत हूँ और ऐसा होना ही चाहिए मैं मानता भी हूँ, किन्तु आपको यह नहीं भूलना चाहिए कि हिन्दी को अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप देने मे वेब का बहुत बड़ा योगदान है । वेब ने इस दिशा मे निश्चित ही एक उत्प्रेरक का कार्य किया है, जो प्रकाशन सौ वर्षों मे नहीं कर सका । हमारे पास अनेकानेक सामाजिक-सांस्कृतिक और बौद्धिक संपदाएं है जिसे प्रसारित कर विश्व को लाभान्वित किया जा सकता है। विश्व समुदाय से निकटता बनायी जा सकती है। भारतीय संस्कृति के विकास में एक अहम् भूमिका निभा सकती है हिंदी ब्लॉगिंग। हाँ ब्लॉग संचालन का उद्देश्य पवित्र होना चाहिए । रवि रतलामी जी हमेशा कहते हैं कि हिन्दी साहित्य को नया सुर, तुलसी ब्लॉग से ही प्राप्त होगा । हाँ आने वाले समय मे ई-साहित्य इस दिशा मे एक बेहद कारगर अस्त्र साबित हो सकता है, ऐसा मेरा मानना है।
प्रश्न - आज पुस्तकों के भविष्य पर बहस हो रही हैं , ईबुक अथवा प्रिंट बुक । आपने तकनीक और साहित्य को बड़े करीब से देखा हैं आपकी क्या राय हैं ? क्या हम इस तरह की बहस को कर समय से पहले ही पुस्तकों की विदाई की तैयारी में लगे हुये हैं ।
रवीन्द्र प्रभात - परिवर्तन प्रकृति का नियम है । परिवर्तन ही पीढ़ियों के बीच टकराव का माध्यम बनता है । इसमें कोई संदेह नहीं कि आनेवाले समय में सबसे बड़ी चुनौती ई-बुक से आएगी। लेखक और पाठक के बीच सीधा रिश्ता कायम होगा और प्रकाशक की नखरेवाजी कम होती चली जायेगी। इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि प्रकाशक समय की नब्ज़ को पहचानें और समयानुकूल साहित्य का प्रकाशन करें।
प्रश्न - दुबारा आपके लेखन की ओर रुख करते हैं । आप को आप की पुस्तकों से क्या अपेक्षाएं है । आलोचना को कितना महत्वपूर्ण मानते हैं ?
रवीन्द्र प्रभात - देखिये पुस्तक प्रकाशन कभी भी स्वांत: सुखाय के लिए नहीं होता, बल्कि सार्वजनिक वाचन के लिए होता है । हर कृति की समीक्षा इसलिए भी जरूरी है कि यह पाठकों को केवल आकर्षित ही नहीं करती, बल्कि उन्हें पढ़ने को विबश भी करती है । पाठक अपनी पसंद के हिसाब से पुस्तकों का चयन करता है और पुस्तक समीक्षा उनकी मदद करती है। जहां तक साहित्यकारों से अपेक्षाओं का प्रश्न है तो यह हर देश काल में रहा है। यह कोई नयी बात नहीं है ।
हाँ एक बात अवश्य कहना चाहूँगा कि कुछ रचनाकार हमेशा सहज लिखते हैं, कुछ बिल्कुल इसके विपरीत असहज लिखते हैं। कुछ तो खुद की फैंटेसी की लपेट में पाठक को भी लपेटना चाहते हैं। उनके सिर आलोचकों का हाथ होने के कारण उनकी वे रचनाएं चर्चा में आ जाती हैं, उन पर प्रायोजित बहसें करायी जाती है। इसके विपरीत दूसरी ओर कुछ ऐसे रचनाकार भी हैं जिनकी रचनाएं पूर्ण सादगी, सरलता और सहजता से अपने परिवेश की बात करती हैं। मेरी समझ से ऐसे ही साहित्यकारों से समाज को अपेक्षा पालनी चाहिए । बाकी को समाज से नहीं वाद और गुटबाजी से मतलब है
हमारे माध्यम से आप किसी को धन्यवाद देना चाहेंगे ?
सबसे पहले तो मैं धन्यवाद देना चाहूँगा अपने सुधि पाठकों को जिन्होंने मेरी कृतियों को सराहा । इस माध्यम से मैं धन्यवाद देना चाहूँगा अपने उन सभी प्रतिबद्ध साहित्यिक मित्रों को भी जिनकी आलोचना-समालोचना और परामर्श ने मेरे लेखन को परिष्कृत किया । आपको भी धन्यवाद देना चाहूँगा कि आपने आज मुझे इतना कुरेदा कि वो बातें भी बाहर आई जो भीतर तक दफन थी । शुक्रिया आपका ।
रवीन्द्र जी हमसे बातचीत करने की लिए बहुत बहुत धन्यवाद ।
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