कहानी
अपनी अपनी सोच
दीपक शर्मा 'कुल्लुवी'
मैं जैसे ही अपने एक पुराने मित्र के घर पहुंचा तो उसकी दयनीय हालत देखकर दंग रह गया.....ऐसा लग रहा था की बरसों का मरीज़ हो अपने कालेज के समय में हमेशा हीरो जैसे टिप टॉप रहनें वाला मेरा मित्र आज फटे हाल सी जिंदगी बसर कर रहा था I जगह जगह से कटे,फटे मैले कुचैले कपड़े.....और तो और बनियान में भी इतने छेद थे की गिनना भी आसान नहीं I
मैं तो यह सोच रहा था की मेरा मित्र अच्छी नौकरी कर रहा है इसलिए बेहद शान से जी रहा होगा पूरे ठाठ बाठ से.... लेकिन उससे मिलने के बाद मेरी हर धारणा गलत साबित हो गई I मैंने हैरानी से उससे पूछा दोस्त यह तुम्हें क्या हो गया तुम्हारी रंगीन ज़िंदगी में यह ग्रहण कैसे लग गया....? क्या हाल बना रखा है अपना ...? ढंग के कपड़े क्यों नहीं पहनते पहले जैसे ...? किसी अच्छे डाक्टर से अपना इलाज बगैरा क्यों नहीं करवाते...? मेरा मित्र झूठी हँसी हँसते हुए बोला ......सब तकदीर के खेल हैं दोस्त शान से ज़िंदगी जी रहे थे हम.....किस्मत के योग ऐसे पलटे कि अर्श से फर्श पर आ गए I कुछ हादसे ऐसे हो गए कि दाने दाने को मोहताज़ हो गए तो कहाँ से अच्छे कपड़े पहनते कैसे अपना इलाज करवाते I अब जो थोड़ा बहुत मिलता भी है उससे बच्चों की लिखाई,पढाई करवाते उनका पेट पालते ,घर चलाते या अपना इलाज I किसके सहारे अपने कपड़े अपनी हालत सुधारते I
मैंने पूछा भाभी जी कहाँ है ..? तो उसने रुआंसे स्वर में जवाव दिया यार अब मैं तो अपनीं मजबूरियों अपनी हालत के चलते कभी उसके लिए कुछ कर नहीं पाया.... कल उसकी किट्टी निकली थी पच्चीस हज़ार की.....तो आज वह उन पैसों से अपने कान के लिए सोने के टॉप्स खरीदने गई है I मैं हैरानी से कभी उसके फटे कपड़े और कभी उसकी मरियल सी हालत निहार रहा था और मन ही मन यह सोच रहा था की सोना तो आजकल एक तोला तीस हज़ार रुपए से भी ऊपर है अब पच्चीस हज़ार में कपड़े लत्ते ,इलाज और घर के छोटे छोटे कई ज़रूरी काम तो कई निकल जाते लेकिन एक तोले से भी कम सोने के टॉप्स से होगा क्या और यह दोनों कानों में दिखेंगे भी क्या ........................? यह तो ऊँट के मुँह में जीरा वाली कहावत चरितार्थ होती दिखती है I
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