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पहाड़ से समुद्र तक

संस्‍मरण                                                                                     
                            

मैं पहाड़ से चल कर सीधा समुद्र के पास आ गया था । और यह दूरी, यह फासला कोई मामूली दूरी नहीं थी । बल्कि तीन हजार किलोमीटर के लगभग का फासला था । इस दूरी को तय करने के लिए मुझे समय लगा था । लगभग सताईस वर्ष अपने सुकून भरे पहाड़ के जीवन से मैं एकदम देश के खारे हवा, पानी वाले भाग में आ गया था । समुद्र के किनारे स्थित देश का यह भाग पहाड़ के जीवन से बिल्‍कुल भिन्‍न, निराला था मेरे लिए । दुश्‍वारियों से भरा । मुझ जैसे पहाड़ के आदमी के लिए बिल्‍कुल अपरिचित ।

मैं पहाड़ों के नैसर्गिक, अप्रतिम सौंदर्य, सहज और खुशगवार वातावरण, सुहाने मौसम और रमणीक स्‍थान मनाली को छोड़ कर समुद्र के पास आ गया था । यद्यपि यह कोई बुरी जगह नहीं थी लेकिन अपनी जन्‍मभूमि को छोड़ नई जगह, नये आबों- हवा में अपने -आप को ढ़ालना, व्‍यवस्थित करना और उस जगह विशेष के अनुकूल बनना अपने आप में काफी मुश्किल था । लेकिन मैं नई जगह आ गया था । जी हां, मैं समुद्र के पास भुवनेश्‍वर में आ गया था । उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्‍वर में । प्राचीन और ऐतिहासिक कलिंग देश- प्रदेश की राजधानी, भुवनेश्‍वर । भुवनेश्‍वर जिसे उत्‍कल भूमि के नाम से भी जाना जाता है, ईसा पूर्व 260 वर्षों से विख्‍यात है । सम्राट अशोक और कलिंग प्रदेश के राजा के बीच कहते हैं कि यही पर महा संग्राम हुआ था । इस संग्राम में मानव संहार के पश्‍चात ही सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म को अपना लिया था । पुराने भुवनेश्‍वर जिसे अंग्रेजी में ओल्‍ड टाऊन और स्‍थानिय भाषा यानी में उडि़या में "जुना भुवनेस्‍वर" कहा जाता है, एक हजार  मंदिर हैं। सबसे भव्‍य, दिव्‍य और विशाल लिंगराज मंदिर है । मंदिर के शिखर से लहराता केसरिया ध्‍वज दूर से ही नजर आता है । चूंकि पुराने टाऊन में विभिन्‍न देवी- देवताओं के मंदिर हैं, इसलिए आम हिंदू तीर्थ स्‍थानों की तरह यहां भी पंडे- पुरोहितों और मंगतों - भिखारियों के झुंड दिख जाते हैं ।   संकीर्ण रास्‍ते और फैली, बिखरी  गंदगी को देख आस्‍था, भक्ति भावना कहीं खो जाती है ।  

भुवनेश्‍वर से पुरी और पुरी का समुद्र तट महज 60 किलोमीटर के फासले पर है । बंगाल की खाडी में । सुप्रसिद्ध सूर्य मंदिर कोणार्क भुवनेश्‍वर से 65 किलोमीटर की दूरी पर है । पुरी से कोणार्क लगभग 35 किलोमीटर की दूरी पर है । इसे गोल्‍डन ट्राईएंगल के रूप में जाना जाता है ।

वह 1980 के दशक के शुरूआती वर्ष थे । उस समय मैं 28 वर्ष के आसपास का था । शादी हो चुकी थी । बड़ी बेटी लगभग दो वर्ष की थी । छोटी बेटी तब पैदा नहीं हुई थी । मनाली से भुवनेश्‍वर पहुंचने में मुझे लगभग 10 से 12 राज्‍यों से कर गुजरना पड़ता था ।

जब पहली बार भुवनेश्‍वर पहुंचा तो लगता नहीं था कि यह राज्‍य की राजधानी है । कटक  रोड और कल्‍पना चौक, राजमहल चौक आदि पर सिंगल लेन सड़कें थी । मुख्‍य मार्गों, सड़कों के किनारे पक्‍के, ऊंचे भवनों के साथ- साथ घास- फूस के छपरों वाले मकान दिख जाते थे । इससे शहर की सुदंरता  प्रभावित दिखती थी। सड़कों पर ऑटोरिक्‍शा आदि एकाध ही दिखते थे लेकिन साईकिल रिक्‍शों की भरमार थी । उन दिनों सिटी बसें भी नहीं चलती थी । लोग मुझे बताते थे कि चंड़ीगढ़ और भुवनेश्‍वर को एक साथ नए शहरों के रूप में विकसित करने की योजना बनाई गई थी । चंड़ीगढ़ तो काफी आगे निकल गया था। लेकिन
भुवनेश्‍वर की चंड़ीगढ़ से तुलना हास्‍यास्‍पद लगता था । भुवनेश्‍वर उड़ीसा की राजधानी होने के बावजूद कटक से भी छोटा और अविकसित शहर था उन दिनों जबकि कटक और भुवनेश्‍वर की  दूरी मात्र 25 किलोमीटर की है । यह कुछ ऐसा ही था जैसे भोपाल और इंदौर, अहमदाबाद और गांधीनगर ।

अपने रहने के लिए मैंने कल्‍पना एरिया में किराये पर कहो या लीज पर घर लिया । कल्‍पना एरिया भुवनेश्‍वर के पॉश इलाको में से एक है । घर काफी बड़ा था । ग्राऊंड फ्लौर पर । तीन कमरे, दो किचन, बाथरूम, बालकनी और पीछे की तरफ आंगन । आगे की ओर फुलवारी । फुलवारी में रातरानी, मोगरे के फूल लगे हुए थे । सीताफल के पेड़ भी थे। सीताफल के पेड़ मैंने पहली बार यही देखा था । पूरी बिल्डिंग के चार अलग- अलग भाग थे । 2 सेट ग्राऊंड फ्लौर पर और दो सेट फर्स्‍ट फ्लौर पर । मकान मालिक थे श्री जे एन पंडा यानी जगन्‍नाथ पंडा । फर्स्‍ट फ्लौर के एक सेट में पंडा जी अपने परिवार सहित स्‍वयं रहते थे । शेष तीन सेट किराये पर दे रखा था ।

पंडा बाबू स्‍वयं अपने मकान का एक सेट किराये पर देने के लिए बैंक में प्रस्‍ताव ले कर आए थे । मकान बहुत अच्‍छा था और किराया मात्र सात सौ रूपये । एरिया भी बहुत अच्‍छा था । ऑफिस, मार्केट, रेलवे स्‍टेशन आदि से नजदीक । मैंने बिना किसी आनाकानी के तुरंत हां कह दी थी । लीज हेतु कागजात तैयार कर लिए थे ।

जब पहली बार मैंने पंडा बाबू को देखा था, तो मुझे अजीब से लगे थे । टूटे दांत, सिर के उड़े हुए बाल और एकदम काला भुजंग- आबनूसी रंग । बाद के समय में मैंने ध्‍यान दिया पंडा बाबू हमेशा एक सी धोती या लुंगी पहने रहते थे। शरीर के ऊपर के भाग खुले होते । केवल उन की जनेऊ लटकी होती । जनेऊ के साथ चाबी बांधे रखते जैसे कोई गृहणी साड़ी के पल्‍लू में चाबियां बांधे रखती है । कभी- कभी वे मुझे अफ्रीकन निग्रो से लगते । मछली, चावल और पाखाल भात उन का प्रिय भोजन था ।

पंडा बाबू कोई मामूली आदमी नहीं थे । वे उड़ीसा सरकार के चीफ सेक्रेटरी के पद से रिटायर हुए थे । रिटायर हो कर उन्‍हें पांच-: वर्ष हो चुके थे। स्‍वभाव के एकदम कड़क । हर बात में अपनी बढ़त रखना उन का स्‍वभाव था । संभवत: दूसरों को आदेश देना, काम करवाना, काम लेना उन की आदत थी । यह आदत, यह स्‍वभाव रिटायर होने के पश्‍चात भी कायम था । वे अत्‍यंत चौकन्‍ने और तनिक झक्‍की स्‍वभाव के भी थे। मुझे सिंह बाबू कह कर बुलाते । कभी शेर सिंह या शर्मा कह कर संबोधित नहीं करते थे । हलांकि उन्‍हें मेरा पूरा नाम शेरसिंह शर्मा पता था ।

पंडा बाबू के दो बेटे और एक बेटी थी । दोनों बेटे नौकरी में थे । बड़ा बेटा डॉक्‍टर था। डेंकनल में सिविल अस्‍पताल में तैनात थे । शादी- शुदा थे । उन की पत्‍नी उन के साथ ही रहती थी । छोटा बेटा इंजीनियर था और विशाखापट्णम में नौकरी करता था । वह उस समय तक अविवाहित था  लेकिन मेरे उस घर में रहते-रहते ही उस की भी शादी हो गई थी। वह अपनी पत्‍नी को विवाह के पश्‍चात अपने साथ विशाखापट्णम को साथ ले गया था । छोटा बेटा कभी- कभी घर को आता रहता था । लेकिन बड़े बेटे और उनकी बहू को मैंने बहुत कम आते- जाते देखा था । बाद में पता चला कि वह पहली पत्‍नी के हैं । पंडा बाबू की वर्तमान पत्‍नी उन की दूसरी पत्‍नी है । छोटा बेटा दूसरी पत्‍नी से ही है ।

पंडा बाबू और उन की पत्‍नी ऊपर के ही एक सेट में रहते थे । उन्‍होंने काला सा झब्‍बरे बालों वाला एक छोटा सा कुत्‍ता भी पाल रखा था । कुत्‍ता एक आंख से काना था । किंतु पंडा बाबू की पत्‍नी हर समय उस कुत्‍ते को अपनी गोद में उठाए रखती । चूंकि मैं अपने सेट वाले उस बहुत बड़े घर में अकेला ही रहता था । पंडा बाबू ने मुख्‍य दरवाजे की एक चाबी अपने पास ही रखी हुई थी । गर्मियों में जब कड़ाके की गर्मी पड़ती, ऊपर के फ्लौर में गर्मी से जान निकलती । पंडा बाबू अपनी पत्‍नी और कुत्‍ते के साथ दोपहर में मेरे सेट वाले घर में आ कर आराम फरमाते या सोते। मुझे चिढ़ होती थी । लेकिन मैं उन को मना नहीं कर पाता था । वे मूडी भी थे और हठी भी । मुंहफट भी बहुत थे । वे जब भी मुझ से बात करते या बोलते तो केवल अंग्रेजी में बोलते । अपनी पत्‍नी के साथ वे हमेशा उडि़या में बोलते- बतियाते थे । अक्‍सर डांटते रहते थे । वह औरत मुंह में पान ठुंसे चुपचाप सुन लेती थी । पलट कर जबाव नहीं देती थी । गर्मियों में मैंने अक्‍सर उन्‍हें एक कोरी साड़ी में ही देखा था । लेकिन बाहर निकलती तो सलीके के वस्‍त्र पहने होती।

यही हाल कहीं- कहीं सड़कों पर  दिखती थी । बुजुर्ग और मध्‍यम वय के पुरूष आधे- अधूरे वस्‍त्रों में दिखते। महिलाएं मात्र एक झीनी सी साड़ी में अपने शरीर को पूरा ढ़कने की नाकाम कोशिश करते दिख जाती थी । पूरा शरीर जैसे पारदर्शी लगता। यह वहां की संस्‍कृति थी या गरीबी, कोई भी समझ सकता था । अपने चेहरे और शरीर पर कच्‍ची हल्‍दी का लेप लगाए महिलाएं सड़कों के किनारे सूखी झींगा मछली बेचती हुई सहज ही दिख जाती । उन रास्‍तों पर सड़ी मदली की तीखी बदबू हर समय हवा में तैरती मिलती । लेकिन संभ्रांत घर,  परिवारों की महिलाएं सड़कों पर बहुत कम दिखती थी ।      

दूसरे वर्ष मैं दिसंबर के दौरान अपनी पत्‍नी और दोनों बेटियों को, दूसरी बेटी का भी जन्‍म हो चुका था, मनाली से भुवनेश्‍वर ले कर आ गया । दिसंबर से फरवरी के महीने बहुत सुखद गुजरे । लेकिन मार्च आते- आते गर्मी ने अपना प्रचंड रूप दिखाना शुरू किया । अब मेरा परिवार मेरे साथ था । पंडा बाबू अब अधिकतर अपने घर के बालकनी में ही रहते । जब भी उन को फुर्सत मिलती, वे मेरी पत्‍नी को लुडो खेलने के लिए बुला लेते । बच्चियां भी साथ होती या सोती रहती । लुडो खेलते समय पंडा बाबू एक छोटे बच्‍चे जैसे जिद्दी हो जाते और तुनकने लगते । लुडो का खेल वे पागलपन की हद तक खेलते थे । इस दौरान उन की पत्‍नी चाय, नाश्‍ता का बराबर ध्‍यान रखती । पंडा बाबू कभी -कभी उन को डांट भी देते थे । वे यह नहीं देखते थे कि कोई बाहर का आदमी बैठा है और वह क्‍या सोचेगा ।

मई आते-आते गर्मी अपने यौवन पर पहुंच गई थी । गर्मी से मेरी बेटियों की हालत भी खराब थी। वे पहाड़ की बेटियां थी और अब जैसे अग्नि देश में आ कर दग्‍ध हो रही थीं । पारा 44 - 45 के आस- पास पहुंचने लगा था । गर्मी के कारण मेरी बेटियों को घमौरियों ने परेशान करना शुरू किया । घमौरियां अब बड़े -बड़े दानों और छालों के रूप में उभरने लगी थी । बेटियां असहज हो कर रोती या खीजती रहती । मेरी पत्‍नी हत्‍दी और चंदन मिला कर उस का लेप लगाती । उन को थो़ड़ी राहत मिलती । लेकिन कुछ देर बाद वही खीज और कुढ़न से रोले लगती थी ।  

एक दिन मैं उन को कल्‍पना चौक में डॉक्‍टर पंडा के यहां ले गया । बताया कि बच्चियां गर्मी और घमौरियों से परेशान हैं और बीमार पड़ रही हैं । उन से विशेषरूप से घमौरियों का इलाज करने के लिए आग्रह किया । उन्‍होंने मुझ से वितार से पूछा कि कहां के हैं ?  और यहां कब से हैं आदि। मैंने उन्‍हें बताया कि हिमाचल प्रदेश, मनाली से हैं । पहली बार भुवनेश्‍वर में इतनी गर्मी में रह रहे हैं । डॉक्‍टर पंडा ने कुछ क्षण सोचा और शायद उन्‍हें इलाज सूझ गया था।  उन्‍होंने जो इलाज सुझाया,   उससे कुछ पल तो मैं भी हैरान रह गया । लेकिन शायद गर्मी की यही एक काट थी । उन्‍होंने कहा कि बर्फ के पानी से यदि बेटियों को नहलाओगे तो शायद घमौरियां कम  होगी । या हो सकता है कि घमौरियां बिल्‍कुल ही बंद हो जाए  और   बेटियों को आराम मिले ।

डॉक्‍टर पंडा की बातों को गांठ बांध कर मैं एक साईकिल रिक्‍शा ले कर सीधे ही कटक रोड में स्थित एक आईस फैक्‍टरी गया । मैंने  बर्फ का एक पूरा स्‍लैब  साईकिल रिक्‍शा में लादा । बर्फ का स्‍लैब वजन में तीस किलो से क्‍या ही कम होगा ?  घर आया । मैंने बर्फ के स्‍लैब  को ज्‍यों का त्‍यों बाथरूम में ही बनाए पानी के संप (टेंक) में डाल दिया । मेरी पत्‍नी ने देखा तो उस की आंखें फैल गई । कुछ समय बाद मैंने उसे दोनों बेटियों को बर्फ के पानी से नहलाने के लिए कहा । पानी पर अब भी बर्फ के टुकड़े तैर रहे थे । पत्‍नी कुछ हिचकिचाई,  फिर बारी- बारी से दोनों बेटियों को बर्फ के पानी से मल -मल कर नहलाया । ठंड़ के कारण बच्चियों का रोना- चिल्‍लाना शुरू हुआ । ठंड़ से उन की जैसे घिग्‍घी बंध गई थी । मैं दम साधे देखता रहा । उन की हालत देख मुझे डर लगा, कहीं ठंड़ से बच्चियों को निमौनिया न हो जाए ?   मेरी पत्‍नी ने उन्‍हें अच्‍छे से नहला दिया । आश्‍चर्य ! उन की घमौरियां खत्‍म हो गई थी या नाममात्र की रह गई थी। उन का चिड़चिड़ाना और रोना भी बंद हो गया था । डॉक्‍टर पंडा का इलाज काम कर गया था । इस के बाद जब भी उन को
गर्मी सताने लगती, मैं बर्फ ले आता और उन्‍हें बर्फ के पानी से नहलाते । उन को गर्मी से राहत मिल जाती ।  यह कार्य बहुत अमानवीय लगता था क्‍योंकि नहाते समय बेटियां रोना और चिल्‍लाना शुरू करती थी । लेकिन उन के स्‍वास्‍थ्‍य और निरोगता के लिए यही एक विकल्‍प दिखता था ।

उन दिनों मैं अक्‍सर सोचता था कि कहां हम पहाड़ के, शीत प्रदेश के और कहां यह उड़ीसा, भुवनेश्‍वर जैसी जगह जो गर्मी में भट्टी जैसा तपता । यह एक ऐसा अहसास था जैसे पहाड़ से गिर कर आग के समुद्र में पड़ गए हों ।  
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 शेर सिंह
के. के. 100
कविनगर, गाजियाबाद – 201 002                                                                                                                                                                                              
                                                                                             



  •  मेरी यह रचना सृजनगाथा  पत्रिका में छप चुकी है ।

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