कोरोना वायरस आज पूरे विश्व में मनुष्य के विनाश पर तुला है
और संपूर्ण मानव जाति मौत की देहलीज़ पर खड़ी हैं। परंतु हमारे देश के सियासी व मज़हबी हल्कों में तू-तू, मैं-मैं की जुगलबंदी गज़ब चल रही है। इस विकट काल में जहां पूरा शासन, प्रशसन व लोग दावानल की तरह फ़ैलती कोरोना की महामारी के विरुद्ध जुगत लगा रहे हैं, वहीं हमारे देश में तबलीगी ज़मात को ले कर मुबाहिसा व तकरार जारी है। मज़हबी लोग सियासी बातें कर रहे हैं और मज़हब पर सियासत करने वाले भी माहौल को गर्म ही रखना चाह्ते हैं। उन्हें तो जैसे कमान में एक नया तीर मिल गया है, जिसे वे अपने सियासी अंदाज़ में अपने फ़ायदे के लिए मनमाफ़िक चला सकते हैं। चले या न चले, परंतु इन सियासी व मज़हबी शूरों ने अपने मयान व कमान से तीर और तलवार निकाल ज़रूर रखे हैं। देश के इस सियासी मंज़र को देखकर मुझे किसी शायर की ये लाइने याद आ रही हैं, "जिसको अब भी हो सियासत पे यकीन, उसको ये मुल्क दिखाया जाए।" मज़हब वाले सही और गलत, दोजख और पाकीज़ा की बात छोड़कर अपनी तकरीरों व ज़िरह से खुद को खुदा और इंसानियत के सबसे बड़े नुमाइंदे व किरदार साबित करने में लगे हैं। इस बहसी शोरगुल में ऐसा लगता है कि मज़हब भी सियासी हो गया है और सियासत तो मज़हब का इस्तेमाल करती आ ही रही है।
वैसे इस बात को समझने के लिए सामान्य बुद्धि ही काफ़ी है कि कोरोना किसी को भी हो सकता है। वो किसी को ग्रसित करने से पहले उसका परिचय नहीं पूछता, उसकी जात, जमात, बिरादरी, मजहब नहीं पूछता। न ही वह किसी खुदा या ईश्वर के आदेश पर किसी खास लोगों को चुनता है। वह किसी के दर पर दस्तक नहीं देता। उसे तो इंसान चाहिए जिसे वो दबे पांव ग्रस लेता है। परंतु हाल ही में तबलीगी ज़मात के लोगों के कोरोना कॉनैक्शन के विषय में कई बातें समझना बहुत ज़रूरी है। कोरोना हो जाना सामान्य बात हो सकती है, परंतु स्ररकारी आदेशों की अवहेलना करके लोगों को किसी स्थल पर इकट्ठे करना कोरोना जैसी महामारी को दावत देना ही है। अनायास या अनजाने में कोरोना से ग्रसित हो जाना अलग बात है, मगर डॉक्टरों की सलाह न मान कर मस्ज़िद में बने रहने के लिए कहा जाए तो मामला संगीन हो जाता है। कोरोना होने पर जांच या इलाज के लिए आगे आना वांछनीय व सामान्य बात है, मगर कोरोना होने पर छुप जाना और लुका-छुपी खेल कर देश की विभिन्न जगहों पर जाना बिल्कुल अवांछनीय कृत्य है। कोरोना महामारी के समय किसी धर्मगुरु या मौलवी का मरकज़ में जमात के लोगों को ये संदेश देना कि कोरोना से अल्ला बचाएगा और मस्ज़िद मरने की सबसे बेहतरीन जगह है और खुद अदृश्य हो जाना कतई भी सही नहीं ठहराया जा सकता। कोरोना काल खंड में मज़हब का ये स्याह चेहरा देख कर कहा जा सकता है, "हर एक दौर का मज़हब नया खुदा लाया, करें तो हम भी मगर किस खुदा की बात करें।"
ये बात सोलह आने सही है कि कुछ तबलीगी लोगों के गलत कारनामों की वजह से पूरे मुस्लिम धर्म को बदनाम या इंगित नहीं किया जा सकता। मैं भी इंगित नहीं कर रहा हूं। परंतु यह भी उतना ही गलत है कि कुछ लोगों की गलत करतूतों को इसलिए नज़रअंदाज किया जाए क्योंकि वे किसी अमूक ज़मात से संबंध रखते हैं। इस तरह का अंदाज़-ए-नज़र सही नहीं और काबिल-ए-मुज्जमत है।
यदि निज़ामुद्दीन या चांदनी महल की मस्ज़िदों से तबलीगी कोरोना पोज़िटिव निकलेंगे, तो यही कहा जाएगा कि तबलीगी जमात के कुछ या इतने लोग कोरोना पोज़िटिव निकले। अगर किसी मंदिर से हिंदु कोरोना पोज़िटिव निकलेंगे, तो यही कहा जाएगा कि अमूक मंदिर से कुछ पुजारी या हिंदू कोरोना पॊज़िटिव निकले। इसमें किसी धर्म, समुदाय या जमात को निशाना बनाने या बदनाम करने वाली बात कहां से आ जाती है। वास्तव में कोई ज़मात, धर्म या समुदाय तभी बदनाम होता है जब उन समुदायों के महनीय लोग भी अपने समुदाय के कुछ लोगों की काली करतूतों की मुज्जमत करने के बजाय उन करतूतों पर पर्दा डालने या नज़र अंदाज़ करने की कोशिश करते है। कोरोना से जूझ रहे मैडिकल स्टाफ़ के साथ बदसलूकी, यहां-वहां, जहां-तहां थूकना किस धर्म के लोग उचित ठहरा सकते हैं। हो सकता है इन बातों में कुछ फ़साने भी हो, पर सब के सब फ़साने नहीं हैं। फ़साने के बहाने सच्चाई को छुपाया नहीं जा सकता। ऐसे लोगों को बचाने की बजाय जमात को इन्हें कटघरे में खड़ा कर सख्त कानूनी कार्रवाई की मांग करनी चाहिए। यदि जमात ऐसे लोगों कि खींचाई करने के बजाय सरकार की खामिया निकालने में ज़्यादा दिलचस्पी दिखाएगी, तो उस जमात का बदनाम होना स्वत: ही तय है।
इसी तरह हाल ही में कुछ निहंग लोगों के द्वारा कोरोना कर्फ़्यू के दौरान पुलिस पर हमले के कारण पूरे निहंग समाज या सिख समुदाय को कटघरे में खड़ा नहीं किया जा सकता। परंतु यदि ये समुदाय हमलावरों की तरफ़दारी या बचाव में खड़े होंगे तो इनका बदनाम होना तय है। संतोष व खुशी की बात है सिख समुदाय के महनीय लोग इस कुकृत्य की सख्त लहज़े में भर्तसना कर रहे हैं और सख्त कार्र्वाई की बात कर रहे हैं। यही धर्म कहता है। सरकार या प्रशासन की कमियां हो सकती हैं, परंतु कोरोना काल में तबलीग के लोगों की गलतियों को नहीं ढांपा जा सकता। लोकतंत्र में नागरिकों का सहयोग व कर्तव्य ऐसी आपदा की घड़ी में और भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं। मैं सिर्फ़ तबलीगी जमात के लोगों की गैरजिम्मेदाराना रवैये की बात कर रहा हूं। यहां मुस्लिम धर्म या इस्लाम की बात नहीं हो रही है। बहुत से मुस्लिम आलिम जमात की पुरज़ोर मुज्जमत कर रहे हैं। यदि हिंदुओं का कोई समुदाय आसा राम, राम पाल, राम रहीम जैसे धर्म्गुरुओं के पक्ष में खड़ा होगा, तो उस हिंदू समाज या समुदाय का बदनाम होना अवश्यंभावी है। इन सरीखे लोगों की पैरवी में खड़े हो जाना कहां का धर्म है और किस मज़हब की तालीम है। गलत को गलत नहीं कहिएगा, तो फ़िर क्या कहिएगा। ये पब्लिक इतनी भी नादां नहीं कि इतना भी न समझ पाए।
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